पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३४

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हल्दी घाटी मे १२६ इस समय ११ वर्ष बाद अपने उस अपमान का बदला लेने आए हो? मैंने तुम्हें मुगलों के सैन्य में खूब ढूंढा । मेरे अपराधी तुम और मानसिंह थे, सलीम नहीं । तुम लोग राजपूत पिता के पुत्र होकर और राजपूतनी का दूध पीकर विधर्मी मुगलों के दास बने ! मै अाज तुम दोनों राजपूतकुल-कलंकियों को मारकर अपनी जाति के कलंक को नष्ट किया चाहता था ! लेकिन अब तुम देखते हो कि इस समय तो मैं खड़ा भी नहीं हो सकता और मेरा प्यारा सहचर भाला उस युद्ध में टूट गया, मेरी तलवार भी टूट गई है, मेरे पास कोई भी शस्त्र नहीं है। परन्तु तुम्हारे जैसे गुलाम गीदड़, सिंह को घायल समझकर उसपर प्राक्र- भण करें, यह सम्भव नहीं। प्रायो, मैं मरने से पहले एक कलंकित राजपूत से पृथ्वी माता का उद्धार करूं । प्रताप ने एक बार बल लगाकर उठने की चेष्टा की, पर वे उठ न सके। शक्तिसिंह ने तलवार फेंक दी। उन्होंने एक दाभ का टुकड़ा वहीं से उठा लिया। उसको दांतों में दवाकर दोनों हाथ जोड़कर वे आगे बढ़े। उन्होने अपनी पगड़ी प्रताप के चरणों में रख दी और कहा-हिन्दू- पत्ति राणा ! यह विश्वासघाती, कुल-कलंकी कभी अपने को प्रापका भाई कहने का साहस नहीं कर सकता। तलवार मेरे पास है, उसकी धार अभी तीखी है। लीजिए महाराज, और अपने अपराधी को दण्ड दीजिए। उसने तलवार महाराणा के आगे रख दी, और सिर झुकाकर महाराणा के चरणों में पड़ गया । राणा की प्रांखों मे प्रांसू उमड़ पाए, उन्होंने गद्गद कण्ठ से कहा- भाई शक्तिसिंह ! मुझे क्षमा करो, मैंने तुम्हे समझा नही; परन्तु यदि युद्ध के पहले तुम मेरे सामने श्राकर यह शब्द कहते और प्राज मैं तुमको सच्चे सिसो- दिया की तरह तलवार चलाकर मरते देखता तो मुझे बहुत प्रानन्द होता। शक्तिसिंह ने कहा-युद्ध के समय तक मेरा मन द्वेप के मैल से परिपूर्ण था और मैं मुगलों का एक सेनापति था। लेकिन जब मैंने आपको घायल और निःशस्त्र युद्ध से लौटते हुए देखा और देखा कि दो मुगल शत्रु आपका पीछा कर रहे हैं तब मुझसे न रहा गया। माता का वह दूध, जो मैंने और आपने एक साथ पिया था, सजीव होकर उमड़ पाया । मैंने सेना को त्यागकर उन मुगलो का पीछा किया और उन दोनों को मार गिराया। वह देखो, वे दोनों ताले के पास पड़े हैं। अब हिन्दूपति महाराज, आपकी जय हो। यह तलवार कमर से बाधिए और यह मेरा घोड़ा लीजिए, सामने की उस घाटी में चले जाइए। वहा