पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३५

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राजपूत कहानियां मेरे विश्वस्त अनुचर हैं, आपके घावों का तुरन्त बन्दोबस्त हो जाएगा । प्रताप ने आश्चर्य-वकित होकर कहा-~-और तुम शक्तिसिंह ? 'महाराज ? मैं शाहज़ादे सलीम के पास जाकर अपना अपराध स्वीकार करूंगा और उनसे कहूंगा कि वे मुझे अपने हाथी के पैरों से कुचलवाकर मार डालें, क्योंकि मैंने उनका सैनिक होकर उनके शत्रु की रक्षा की है।' शक्तिसिंह रुका नहीं, चल पड़ा। प्रताप ने कहा-भाई ! सुनो ! शक्तिसिंह ने कहा-महाराज मेरा अपराव बहुन भारी है। मैं कभी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि आप मुझे दण्ड दे सकते हैं। मैं यवन सेनापति से ही दण्ड चाहता हूं। शक्तिसिंह चले गए। प्रताप ने बीर भाई को पहचाना। वे वड़ी देर तक उनकी ओर देखते रहे और भाई की दी हुई तलवार कमर में बांधी और घोड़े पर चढ़कर चल दिए। प्रात:काल का समय था। महाराणा प्रताप पर्वत की एक गुफा में शिला पर बैठे हुए थे। पांच सरदार उनके इर्द-गिर्द थे। उनके जख्म अब अच्छे हो चले थे । वह शक्तिसिंह की बारम्वार नारीफ कर रहे थे, एक लम्बी मनुष्य- मूर्ति उस गुफा के द्वार पर लाकर खड़ी हो गई । वे शक्तिसिंह थे । प्रताप भुजा भरकर उनके साथ मिले। शक्तिसिंह ने वह मणि अपने वस्त्र में से निकालकर प्रताप के सामने रखी और कहामहाराज, यह मणि सलूम्बरा सरदार ने मरते समय मुझे दी थी और वसीयत की थी कि मैं यह आपके हाथ में दूं। इसके बाद उन्होंने सलूम्बरा सरदार की वीरतापूर्ण मृत्यु का करुण वर्णन किया और वर्णन करते-करते शक्तिसिंह रो पड़े। उन्होंने कहा-~-महाराज, मैं अनुताप की 'पाग में जला जाता हूं। आपके पास से लौटकर मैंने सलूम्बरा सरदार को देखा। उस समय भी उनके शरीर में प्राण थे। और जब उन्होंने सुना कि स्वामी की प्राण-रक्षा हो गई तो उनके मुख पर मुस्कराहट पाई और फिर उनके प्राण निकल गए । धन्य हैं वे सरदार, जो इस तरह अपने स्वामी के लिए प्राण देते हैं। "मैंने सलीम से अपना अपराव कह दिया था। परन्तु सलीम ने कोई दण्ड न देकर आपके पास पाने को कह दिया। अब महाराज, आप मुझे दण्ड दीजिए। प्रताप ने भाई का हाथ पकड़कर प्रेम से अपने निकट बैठाया और उसी समय फर्मान किया कि भविष्य में सलूम्बरा सरदार के वंशधर मेवाड़ की सेना में हरावल में रहेंगे और शक्तिसिंह के वंशज युद्ध-क्षेत्र में दाहिने पक्ष में रहेंगे।