पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३६

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वाणवधू इस कहानी में वीरवाला तारा के अप्रतिम शौर्य का अनोखा रेखाचित्र है । . 'प्रिये, यह सब भाग्य का खेल है, लक्ष्मी अति चपल है । वह सदा एक ठौर नहीं रहती; जो कल महाराज था, भाज' भिखारी है।' 'स्वामिन्, मैं क्षत्रियपुत्री हूं, मैं भाग्य को नहीं मानती। वीर पुरुष अपने पौरुप से भाग्य का निर्माण करते हैं।' 'किन्तु विश्वधारा के प्रतिकूल, क्षोण मनुष्य का बल' 'किन्तु कर्मक्षेत्र में दृढ़ता से खड़े रहना उसका कर्तव्य है।' 'और यदि युद्ध में पराजय हुई ?' 'तो वहीं प्राण त्यागे, क्या वीर पुरुष तिनके हैं जो प्रवाह में पड़कर जिबर लहर ले जाय उधर ही वह निकलें ?' 'क्या नल पर विपत्ति नहीं पड़ी ? राज्य गया, स्त्री छूटी, अन्त में नौकरी करनी पड़ी, यह सब विधाता के खेल है।' 'यह अवैध जुना खेलने के खेल हैं ।' 'प्रिये, ऐसी बातें क्यों करती हो ? तुम्हें यहां क्या कष्ट है, कैसी सुन्दर वन- स्थली है, करने का मीठा जल, फल और हरियाली 'पराधीनता में एक क्षण भी रहना धिक्कार की बात है, कायर ही ऐसी युक्तियों से सन्तोष किया करते हैं।' "प्रिये, पति से ऐसे कठोर वाक्य कहते उचित नहीं, द्रौपदी ने भी कठोर वचन कहे थे, पर फल क्या हुआ ?' 'सच है, क्षत्रिय को रण में पीठ दिखाना शोभा देता है, तुम पुरुष जब से स्त्रियों के विधाता बन गए हो तब से उन्हें सदा अपने प्रति कर्तव्य का उप- देश देते रहते हो, पर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते । यदि तुम कायरों की भांति से भाग न आते और सम्मुख युद्ध में प्राण देते तो देखते कि तुम्हारी