पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३७

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राजपूत कहानिया पत्नी किस आनन्द से चिता पर चढ़ती है !' 'पर प्रिये, समय के लिए बच रहना भी युक्ति है।' 'कायर ही ऐसी युक्तियां दिया करते हैं, पर जो सच्चे शूर है वे जय या मृत्यु-इन दो वस्तुओं को ही प्राप्त करते हैं, शोक तो यह है कि मुझे कन्या जन्मी, पुत्र भगवान् ने न दिया।' 'और जो पुत्र भी युद्ध से भागता ?' "सिंहिनी कभी स्यार नहीं पैदा करती।' 'ग्राह मैने नारी-जन्म पाया, मुझे धिक्कार है, मैं पुत्र क्यों न हुई । परन्तु स्त्री अबला क्यों ? क्या उसके हाथ-पैर नहीं, मस्तिष्क नहीं, हृदय नहीं? शक्ति, तेज, बल-सभी तो शिक्षा और अभ्यास से प्राप्त होता है। देखू ! सुकोमल वाहों को वज्र-मुजदण्ड बना लूं ? इन कलाइयों में दुधारा खड्ग धारण करूं। माता, तुम क्षोभ मत करो, मैं पिता का राज्य शत्रु से छीनूगी तो मेरा नाम तारा रहा, मैं राजपूतनी की बच्ची हू ! मैं तुम्हारे पुत्र का काम करूंगी।' 'प्रिये, तारा पुत्री कहां गई ?' 'शिकार को गई है।' 'अरे, उस दिन इतना मना किया था, क्या वह वालक है ? उसे रोका नहीं ?' 'तुम्हीं रोक देखो।' 'वह विवाह के योग्य हो गई।' 'इसका विचार भी तुम्ही करो।' (तारा का प्रवेश) 'पिताजी आपने यह बाघ का बच्चा देखा ?' 'अरे अरे, उसे यहां लाया कौन ?' 'झाड़ी में घुसकर लाई हूं, इसकी बेचारी माता आज मेरे वठे से विद्ध होकर मर गई। 'मर गई ? तुमने बाधिन को मारकर वच्चा छीन लिया?' 'पिताजी, कैसा प्यारा बच्चा है ?' 'तारा वेटी, तुम्हारा यह कार्य प्रशंसा के योग्य नहीं, तुम राजकुल की कन्या हो–यों पुरुष-वेश मे घूमते फिरना और शिकार करना तुम्हे उचित नहीं।