पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वाणवधू जायो, भीतर बैठो।' 'पिताजी, जव मदों ने मर्द के सब काम और बर्ताव तक छोड़ दिए, स्त्री जैसे बन गए-पर स्त्री का प्रधान गुण लज्जा एक बार ही तज बैठे-और चुप- चाप शत्रु को लात सहते बैठे हैं, तब स्त्रियों को विवश यह वेष लेना पड़ता है।' 'तारा, ऐसा तर्क, ऐसी प्रगल्भता तूने किससे सीखी ?' 'पिताजी, तब वाघ का बच्चा न देखोगे ? मां, प्राओ तुम देखो।' 'चलो बेटी, देखू तेरा वाघ ।' मैं सुन चुकी, मेरे कान पक गए। यह सड़ा हुआ वाक्य-'तुझे चाहता हूं' ' मैं नहीं सुनना चाहती, मैं इससे घृणा करती हूं। 'तारा, तुम्हें सुनना ही होगा।' 'कुंवर तुम चाहो-चाहे न चाहो, इससे किसीका कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।' 'माह ! कसी पाषाणहृदय नारी हो, किसने तुम्हें यह रूप दिया ?' 'मूर्ख विधाता ने, जिसने तुम्हें मर्द और मुझे औरत बनाया ।' 'तारा, तुम प्रेम का तत्त्व नहीं समझतीं।' 'नहीं समझती, वह तत्त्व मुझे मिखाया नहीं गया, वह धर्मियों के सम्भोग की विद्या है, घर-द्वार और राज्य के विहीन सामन्त की दरिद्र कन्या के लिए उपयुक्त नहीं।' 'तुम्हारी इच्छा क्या है ? 'जब तक पिता का राज्य वापस न ले लूंगी, किसी विषय को मन में स्थान न दूंगी। 'यह किस भांति होगा?' 'मैं नहीं जानती, पर मेरे सोचने का यही विषय है, मैं अकेली स्त्री हूं, माना कि शस्त्र-विद्या जानती हूं पर जव सभी मर्द निश्चिन्त बैठे हैं, मैं अकेली क्या करूंगी?' 'क्या ब्याह की रुकावट यही है ?' 'यही है । प्रेम विलासियों का स्वप्न है, साधकों का नहीं ।' 'यदि मैं तुम्हारी मातृभूमि का उद्धार करूं ?'