पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३९

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राजपुत कहानिया 'तो मैं तुम्हें ब्याहूंगी-~चाहे तुम्हें चाहूं या न चाहूं।' 'सच? 'सच, यह रूप, यौवन, यह सतीत्व-रत्न सब तुम्हारे चरणों में बलि होगा।' 'अच्छा व्याह के बाद प्रेम करोगी?' 'नहीं कह सकती, तो भी अपना रूप, यौवन सभी बे-उन बेच दूगी । वह तुम्हारी सम्पत्ति होगी। 'तव यही होगा।' 'तव जाइए कुंवर, जव तक प्रतिज्ञा पूरी न करो मेरे सामने न आना।' -~-अद्रं रात्रि है, चोर की भांति आया हूं, पर प्रेम अन्धा है, अहा ! कैसा छलकत्ता यौबन है ! वैशाखी वायु में इसकी बहार तो देखो, आकाश में कितने नक्षत्र हैं ! पर पृथ्वी में एक यही है, कैसी सुन्दर है, बेसुध सो रही है, कैसी विशाल प्रांखें, भवें, अहा ! चिकने केश, निखरा हुआ रंग, बलिष्ठ और कोमल शरीर और वक्षस्थल का उभार, फड़कते होंठ मानो चुम्बन माग रहे हैं, यह कम्पित वक्षस्थल मानो आलिङ्गन मांग रहा है हैं, पैर में क्या भड़ गया' 'कौन ? 'प्रिये, चरणों का दास।' 'कुंवर, तुम इस समय यहां?' 'प्रिये क्षमा।' 'एक क्षण भी बिना ठहरे चले जायो।' 'नहीं तारा, मैं बिना इच्छा पूर्ण किए न जाऊंगा।' 'नीच, कापुरुष, कुमार्गी-मेवाड-कुल-कलङ्की, धिक्कार है ! तू चोर की भांति छिपकर कन्या के शयन-गृह में घुस आया है !' 'तारा, प्रेम अन्धा है।' "फिर कहती हूं चले जानो।' . ?' 'वरता प्राण जाएंगे। 'मैंने द्वार वन्द कर लिए हैं, तुम्हें कौन बचाएगा?' 'अरे मूढ़, क्षत्रियबाला स्वयं रक्षा करती है, क्या तुम जानते हो। $ .