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बौद्ध कहानियां
 


वस्त्रों में लिपटा अपना अंगूठा चूस रहा है । आश्चर्य-चकित होकर महानामन ने शिशु को उठा लिया । देखा, कन्या है। उसने अपनी स्त्री को पुकारकर उसे वह कन्या देकर कहा- देखो, आज इस प्रकार अपने जीवन की पुरानी साथ मिटी।

वह कन्या-उस दरिद्र लिच्छवि महानामन के उस दरिद्रावास में शशिकला की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया अम्बपालिका।

वैशाली से उत्तर-पश्चिम २५ कोस पर, एक छोटे से गांव में, एक किनारे पर एक साधारण घर था। उसके द्वार पर एक वृद्ध प्रातःकाल बैठा दातुन कर रहा था। पूर्व के द्वार पर से पैर की आहट सुनकर उसने पीछे को देखा, एक चम्पक पुष्प की कली के समान एकादशवर्षीया, अति सुन्दरी बालिका, जिसके धुंघराले बाल लहलहा रहे थे, दौड़ती-दौड़ती बाहर आई और वृद्ध को देख उससे लिपटने को लपकी, पर पैर फिसलने से गिर गई। वह गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका उठाया, उसकी धूल झाड़ी; बालिका ने रोना रोककर कहा-बाबा, घर में आटा बिलकुल नहीं है, हम लोग क्या खाएंगे ? वृद्ध ने उसे गोद में उठाते हुए कहा कुछ चिन्ता नहीं, मैं अभी गेहूं पिसवाने की व्यवस्था करता हूं। बालिका ने कहा-गेहूं का भी तो दाना नहीं है । वृद्ध क्षण भर अवाक रहा । उसने कहा-तब ठहर, मैं अभी शिकार मार लाता हूं। बालिका ने रोककर कहा-नहीं नहीं, मैं पक्षी का मांस नही खाऊंगी।

वृद्ध महानामन लिच्छवि था और कन्या थी अम्बपालिका । वृद्ध की पत्नी का स्वर्गवास हुए ८ साल व्यतीत हो गए थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या मे वाधा पड़ती देख, महानामन ने राज-सेवा छोड़कर अपने ग्राम में आकर बालिका की सेवा-शुश्रूषा अबाधरूप से करने का निश्चय कर लिया था। वह गत आठ वर्षों से इसी गांव में रहता था। अम्बपालिका को उसने इस तरह पाला जैसे पक्षी चुग्गा दे-देकर अपने शिशु पक्षी को पालता है। परन्तु खेद है, धीरे- धीरे उसकी छोटी सी कमाई की क्षुद्र पूंजी, यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो ही गई । और फिर धीरे-धीरे पत्नी के स्मृति-रूप दो-चार क्षुद्र आभूषण भी सदर-गुहा में पहुंच चुके । अव आज क्या किया जाय ? अब तो आटा भी नहीं