पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१४८

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नवाब ननक् १४३ 'तो क्या मैं अपने लिए मांगता हूं। मैंने कभी पी है ?' 'फिर किसके लिए? "राजा साहब के लिए। 'अच्छा-~~-यह बात है, अब समझा । कोई नई चिड़िया आई है क्या ?' 'राजेश्वरी ग्राई है बनारस से।' 'तो तुम क्यों उस शराबी के लिए झख मारते फिरते हो ?' 'तब कौन झख मारे । तुम चाहते हो, राजा साहब खुद तुम्हारे दरवाजे पर आकर चालीस-चालीत रुपल्ली के लिए जलील होते फिरें।' भी करें, तुम्हें क्या । जो जैसा करेगा, भोगेगा । जिसने लाखों की जमीन-जायदाद, जर-जवाहरात, सब शराब और रण्डी-भड़ों में फूंक दी, तुम उससे क्यों इतनी हमदर्दी रखते हो ?' 'क्या मैं हमदर्दी रखता हूं?' 'तब? 'मैं मुहब्बत करता हूं उनसे भाई, उनकी इज्जत करता हूं।' 'किसलिए ? आखिर सुनूं तो।' 'किसलिए? सुनो, पहले तो वे मेरे बड़े भाई, दूसरे ऐसे दाता, ऐसे प्रेमी, ऐसे बात के धनी, ऐसे दिल वाले कि दुनिया में चिराग लेकर ढूंढो तो कहीं मिल नहीं सकते।' 'शराबी और रंडीबाज़ भी क्यों नहीं कहते ?' 'वह तुम कहो। वे शराब पीते हैं और रण्डियों से प्राशनाई करते हैं, इसमें किसीका क्या लेते हैं ? उन्होंने अपनी लाखों की जायदाद उन्हें दे दी, जिन्हें उन्होंने प्यार किया। आज उनका हाथ खाली है, मगर दिल बादशाह है। जीते जी बादशाह रहेंगे। मैं उन्हें पसन्द करता हूं, प्यार करता हूं, इज्जत करता हूं। मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता कि वे दुनिया के प्रागे हाथ फैलाएं ।' 'और तुम उनके लिए भीख मांगते फिरते हो।' किससे मैंने भीख मांगी है, कहो तो', नबाब ने तैश में आकर कहा । 'यह अभी तुम चालीस रुपए मांग रहे हो ?' 'और यह क्या है ? सवाव ने सामने की पोटली की ओर इशारा किया।