पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१४९

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सामाजिक कहानिया उसे तो मैं भूल ही गया था। मैंने देखा-वह एक जरी के काम का कीमती लंहगा है। नवाव ने कहा-वेचना चाहूं तो खड़े-खड़े दो सौ में बेच दूं। तुम से तो मैं चालीस ही मांग रहा हूं। 'लंहगा क्या राजा साहब ने दिया ?' 'वे क्यों देने लगे ? अम्मी जान का है । राजेश्वरी माज आई थीं। मुझे बुलाकर राजा साहब ने कहा--नवाव, हाथ में इस वक्त कुछ नहीं है, राजेश्वरी के लिए कुछ खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दो। अांखें उनकी शर्म से झुकी थीं, और लाचारी से भीग रही थीं । बस इतनी ही तो बात है।' 'अच्छा और तुम चुपके से घर आए, यह लंगा उठाया और यहां प्रा धमके।' 'जी हां, और तुम्हारी नीद हराम कर दी : बहुत हुआ अब, बस अब लामो रुपये दो।' मैंने चुपके से दस-दस के चार नोट नवाब के हाथ पर रख दिए। मेरी आखों में आंसू आ गए, और मैंने वह लंहगा उसी तरह लपेटकर नवाब की ओर बढाते हुए कहा-इसे लेते जाओ। नवाब ने प्रापे से बाहर होकर चारों नोट फेंक दिए। लाल होकर कहा- अच्छा, तो हज़रत मुझे भीख देने की जुर्रत करते हैं। 'नहीं भाई, ऐसा क्यों सोचते हो, मगर यह लंहगा मैं नहीं रख सकता।' 'तो तुम्हारे रुपए भी नवाब नहीं ले सकता । श्राज राजा कामेश्वरप्रसाद- सिंह खाली हाथ हैं, और नवाब ननकू अपनी अम्मी जान का लंगा गिरवी रखने पर लाचार हैं, मगर अाप यह मत भूलिए कि वे दोनों सलीमपुर के राजा महाराज नन्दन सिंह के नुतफे से पैदा हुए है, जो तीन बार सोने से तुले थे, और जिन्होंने ग्यारह हाथी ब्राह्मणों को दान दिए थे। जिनकी दी हुई जागीरों को सैकड़ों शरीफज़ादों की प्रास-औलाद प्राज भोग रही है। इलाके भर में जिनके पेशाब से चिराग जलते थे।' मैंने खड़े होकर खुशामद करते हुए कहा- वह सब ठीक है नवाब साहब, मगर ये रुपए तुम मेरी तरफ से राजा साहब को नजर करना। 'हरगिज़ नहीं, राजा साहब कभी किसीकी नजर कबूल नहीं करते। तुम