पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१५०

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नवाब ननकू १४५ यह लंहगा गिरों रखकर चालीस रुपए देते हो तो दो।' लाचार मैंने हामी भर ली । मैंने लंहगे को उसी तरह लपेटकर रख लिया और नवाब रुपए जेब में रखकर उठ खड़े हुए। मैंने कहा- यह क्या नवाब, भाभी का पान बिना खाए और विना सलाम किए चले जाओगे? 'हरगिज़ नहीं' नवाब ने बैटते हुए कहा-~-बुलायो तो उन्हें । मैंने पत्नी को नीचे से बुलाया। वे बच्चों को दूध पिलाने और सुलाने की खटपट में थीं ; नवाब को एक लफंगा प्रादमी समझती थीं। मेरे पास उसका पाना-जाना और चाहे जब रुपए-पैसे ले जाने को वे हमेशा नापसन्द करती थी। उन्होंने आकर कहा-~-इस वक्त मेरी तलबी क्यों हुई है ? "यह इन नवाब साहब से पूछो।' 'यही कहें ? 'पान खिलाइए तो कहूं।' 'कहो, पान भी मिल जाएगा।' 'वादे की सनद नहीं, झपाके से दो बीड़ा बढ़िया पान ले पाइए।' पत्नी चली गई और एक तश्तरी में कई वीड़े पान लेकर लौटीं। उनमे से दो वीड़े उठाकर नवाब ने हाथ में लिए, अदब से मेरी पत्नी के सामने खड़े हुए और जमीन तक झुककर कहा-सलाम बड़ी भाभी, आपका यह गुलाम नवाव ननकू आपको सलाम करता है, और आपकी दुआ की इस्तुजा रखता है। पत्नी मुस्काराई। उन्होंने कुछ भेंपते हुए कहा-~-कभी बच्चों को भी नही भेजते नवाब साहव; एक बार भेजो। 'जो हुक्म बड़ी भाभी, सलाम ।' नवाब साहब ने और एक सलाम झुकाई और चले गए। मेरी नींद बहुत रात तक गायव रही । मैं अन्दाज़ा न लगा सका कि यह व्यक्ति संसार के सब मनुष्यों से कितना ऊंचा है ? कमरे मे एक श्रोर अंगीठी जल रही थी। राजा साहब पलंग पर लेटे थे और एक खिदमतगार धीरे-धीरे उनके पांव सहला रहा था। राजेश्वरी नीचे फर्श पर बैठी छालियां काट रही थी। चांदी का पानदान सामने खुला रखा था। राजा