पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१५१

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मगर १४६ सामाजिक कहानियां साहब गंगा-जमुनी काम की गुड़गुड़ी पर अम्बरी तम्बाकू पी रहे थे और धीरे- धीरे राजेश्वरी से बातें कर रहे थे। राजेश्वरी की उम्र चालीस को पार कर चुकी थी। बदन उसका कुछ भारी हो चला था, और माथे पर की लटों में चांदी की चमक अपनी बहार दिखा रही थी। फिर भी उसकी पानीदार आंखों और मृदु मुस्कान में अभी भी मोह का नगा भरा था। राजेश्वरी ने कहा- सरकार ने यों नज़रें फेर लीं, मुद्दत हुई पैगाम तक न भेजा, सुनती रहती थी, हुजूर के दुश्मनों की तबियत खराब रहती है। आखिर जी न माना, वेहया बनकर चली आई। 'मुझे निहाल कर दिया तुमने इस वक्त भाकर राजेश्वरी, दिल बाग-वाग हो गया । क्या कहूं, बहुत याद करता हूँ तुम्हें- 'हुजूर की नजरे इनायत पर मैंने हमेशा फख किया है, और मरते दम तक करूंगी। 'तुम जियो राजेश्वरी, ईश्वर तुम्हें खुश रखे ! यह मूजी वीमारी- क्या कहूं, अब तो हिलने-डुलने से भी लाचार हो गया हूं। पर यह सब उस भगवान् की दया है। फिर मुझे अपनी लाचारी का क्या गम है, जब तुम दुनिया की तमाम खुशी लेकर यहा आ जाती हो।' राजेश्वरी ने चार वीड़ा पान बनाकर राजा साहब को अदब से पेश किए। राजा साहब ने मुस्कराकर पान लेकर मुंह में रखे । खिदमतगार ने आकर अर्ज की-हुजूर, कुंबर साहब सलाम के लिए हाजिर हुए है। 'श्राएं वे'-राजा साहब ने धीरे से कहा । कुंवर साहब ने झुककर राजा साहब को सलाम किया और पैताने की ओर अदय से खड़े हो गए। राजा साहब ने कहा-चाची को सलाम नहीं किया बेटे । कुंवर साहब ने आगे बढ़कर राजेश्वरी को सलाम किया, और दो कदम पीछे हट गए । राजेश्वरी खड़ी हुई। आगे बढ़कर कुंवर साहब के पास पहुंची, उनके मुह पर प्यार से हाथ फेरा, और दो अशफियां निकालकर उनकी मुट्ठी में जबरन थमा दीं।