पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१५६

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नवाब नन । और अलाप लिया ! हारमोनियम पर नवाव की अभ्यस्त उंगलियां नाचने लगी, और तबले पर मृदु मन्द ताल नृत्य करने लगा। राजेश्वरी की प्रौढ़ स्वर-लहरी ने वातावरण में एक प्यास उत्पन्न कर दी यह वैसी न थी, जैसी वासना और यौवन की प्रांधी के झोंकों में मिली रहती है। यहां तीन प्रेमी विश्वस्त, पुराने और ऊंचे हृदय, अपने भौतिक भानन्द की चरम अनुभूति ले रहे थे। वे लोग आप ही अपनी कला पर मुग्ध थे, भाप ही अपनी तारीफ कर रहे थे, आप ही अपने में पूर्ण थे। 'तो हुजूर, अव कब ?' 'जब मर्जी हो राजेश्वरी।' 'तबीयत होती है कि कुछ दिन कदमों में रहूं।' 'मैं भी चाहता तो हूं राजेश्वरी, पर तुम्हारी तकलीफ का ख्याल करके दुप रह जाता हूं। देखती हो, मकान कितना गन्दा है, सिर्फ दो ही खिदमतगार हैं। इन्हें भी महीनों तनखाह नहीं मिलती, पर पड़े हुए हैं। तुम इन तकलीफों की यादी नहीं हो।' 'मगर हुजूर, क्या मैं उन खिदमतगारों से भी गई-बीती हूँ ?' 'नहीं, नहीं राजेश्वरी, मैं तुम्हें जानता हूं।' 'मगर हुजूर अपने को नहीं जानते, मेरी वह कोठी, जायदाद, नौकर-चाकर सब किसकी बदौलत हैं, हुजूर ने जो पान खाकर धूक दिया उसीकी बदौलत । अब हुजूर गरीब हो गए तो पुराने खादिम क्या वेगाने हो जाएंगे ?' राजेश्वरी की प्रांखें भर आई। कुछ ठहरकर उसने कहा-शर्म के मारे मैं खिदमतगारों को नहीं लाई, और इस टुटहे इक्के पर आई हूं। मैं कैसे बर्दाश्त कर सकती थी कि मालिक जब इस हालत में हों तो उनकी बांदियां ठाठ दिखाएं। 'नहीं नहीं, राजेश्वरी, यह बात नहीं । पर मैं अपनी प्रोखों से तुम्हें तक- लीफ पाते देख नहीं सकता। कभी देखा ही नहीं।' 'इसीसे हुजूर, सुझे अभी जबर्दस्ती भेज रहे हैं, मेरी नहीं सुनते ।' 'इसीसे राजेश्वरी।' 'और इस लौंडी का कभी कोई तोहफा भी नहीं कबूल करते ? उस बार