पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६१

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सुख-दान पति-पत्नी का परस्पर जो आध्यात्मिक सम्बन्ध है-जो शरीर से भिन्न है-इस कहानी में उसीको भावपूर्ण ढंग से प्रकट किया गया है। कहानी पति-पत्नी के अभिन्न अस्तित्व पर तथा परस्पर के सामाजिक जीवन पर केन्द्रित है। शादी होने के तीन-चार दिन बाद जब सब फालतू मेहमान विदा हो गए, और घर में नवागत वधू, एक नौकर और दूर के रिश्ते की एक विधवा बहिन रह गई तो बहिन ने जोड़-तोड़ लगाकर सुहागरात की जो व्यवस्था सम्भव थी, वह कर डाली। उस व्यवस्था की सूचना जब संकेत से विद्यानाथ को मिली तो बड़ी देर तक वह चुपचाप नीची गरदन किए अपनी बैठक में बैठे रहे। कई बार नौकर ने उठकर सोने जाने को कहा। एक बार फिर बह्नि ने भी प्राकर कहा ; पर विद्यानाथ न तो उठे, न कुछ कह ही सके, चुपचाप नीचा सिर किए बैठे रहे । कुछ देर चुपचाप खड़ी रहकर बहिन चली गई। उसके बहुत देर बाद जब उन्होने फिर नौकर को अपनी ओर आते देखा तो वह एकाएक उठकर अपने चिर- परिचित शयनागार में चले गए। शयनागार सजाया गया है, यह कहा जा सकता था। शय्या पर स्वच्छ, सफेद चादर और उसपर नया तकिया, तकिए पर ताजे बेला के फूलों की दो मालाए, सिरहाने धूपबत्ती से उड़ता हुआ धूमिल धूम्र, और खिड़कियों पर नए परदे, टेबिल पर जलपान का थोड़ा सामान, और सबके ऊपर कमरे के बीचोंबीच एक अच्छी पारामकुरसी पर बैठी हुई सुषमा, जो एक महीन पाड़ की उज्ज्वल साड़ी पहने कोई पत्रिका उद्विग्न चित्त से पढ़ रही थी ! विद्यानाथ चुपचाप सुषमा के सामने जा खड़े हुए। हजारों बार देखी हुई सुषमा को इस बार वह सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी आंख उठाकर देखने में समर्थ नहीं हो सके । सुषमा ने पत्रिका से आंख उठाकर देखा, और मृदु हास के साथ कहा-यहां खड़े क्यों