पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६२

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सुख-दान १५७ रह गए आप ? यहां प्राइए ! दो घण्टे से मैं आपकी इन्तजार में बैठी हूं। आज- कल क्या आप बहुत देर में सोते हैं ? पहिले तो आप जल्दी ही सो जाया करते थे। मैं.. सहना सुषमा रुक गई। उसने देखा, विद्यानाथ की आंखों से झर-झर पासू गिर रहे थे और उनकी पलकें नीचे झुकी हुई थीं। वह पाखें उठाकर उसकी ओर देख नहीं सकते थे । सुषमा ने कुर्सी से उठकर उनका हाथ पकड़कर कहा- बैठिए न यहा ! अब आपको क्या दुःख है, और मैं उसमें आपका कहां तक हाथ वटा सकती हूं, मुझसे कहिए तो! 'पाप तो बोलते ही नहीं । क्या... सुषमा फिर रुक गई। उसने देखा, उनकी आंखों से अश्रुधारा ज्यों की त्यो बह रही है ! मन के प्रबल उद्वेग को रोकने में वे असमर्थ हैं । उनका सम्पूर्ण शरीर वैत की तरह कांप रहा है । सुषमा ने भयभीत होकर कहा-आपको हुआ क्या है ? क्या किसीको बुलाऊं ? और वह उठकर बाहर जाने लगी। पर विद्यानाथ ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया, जाने नहीं दिया । अपनी सम्पूर्ण शक्ति खर्च करके उन्होंने कहा-बैठ जाओ, सुषमा ! मैं अभी ठीक हो जाऊंगा ! सुषमा ने उन्हें धीरे से पलंग पर बैठा दिया, और आप उनके पास खड़ी रही। उसका हाथ विद्यानाथ के हाथ में था। उन्होंने बिलकुल टूटी-फूटी वाणी मे कहा-तुम भी यहीं बैठ जाओ, सुषमा चुपचाप उनके पास पलग पर बैठ गई। उसने विद्यानाथ के हाथ को दूसरे हाथ से छूकर कहा-आप लेट जाइए ! आपकी तबीयत ठीक नहीं है। बदन बर्फ-सा ठण्डा हो रहा है, और आप काप भी रहे हैं ! क्यों न डाक्टर को बुलवा लिया जाए ? 'नहीं, नहीं ! तुम्ही काफी हो, सुषमा ! मैं अभी ठीक हो जाऊंगा !' सुषमा ने फिर और कुछ नहीं कहा । हाथ का सहारा देकर विद्यानाथ को पलग पर लिटा दिया। कुछ देर विद्यानाथ पलंग पर चुपचाप पड़े रहे। फिर उन्होंने भर्राए गले से कहा- यह सब क्या हो गया, सुषमा ? कैसे हो गया ? सुषमा हंस पड़ी। उसने स्निग्ध, कोमल स्वर में कहा--जो कुछ आपने चाहा और किया, वहीं तो हुआ ! 'सच ? इसे भाग्य की अमिट रेखा और विधाता का अटल विवान नहीं सुषमा !