पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६३

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सामाजिक कहानियां कहना चाहिए ? 'आप क्या भाग्य और विधाता को अब मानने लगे ? मुझे तो आप ही ने सिखाया था कि भाग्य और विधाता, यह सब दुर्बल मानव-मस्तिष्क की कल्पना विद्यानाथ थोड़े लज्जित हुए। उन्होंने धीमे स्वर में कहा- तुम जो कहती हो, यदि वही सही है, और मेरा चाहा और मेरा ही किया हुआ, तो यह अन- होनी हो गई ! 'इसमें आश्चर्य क्या है ? आपकी शक्ति अपरिसीम है, और आपका प्रभाव असाधारण है, पापका विरोध करने की क्षमता किसमें है ?' 'फिर भी, सुषमा, इस काम में मेरा सम्पूर्ण साहस और पौरुष खर्च हो गया। अव तुम अपना साहस और शक्ति थोड़ी मुझे दो तो शायद मैं कुछ प्रतिकार 'मैं आपकी पत्नी हूं, और अपना सर्वस्व पापपर न्योछावर करने अापके पास आई हूं। फिर पाप प्रतिकार किस बात का किया चाहते हैं ?' विद्यानाय ने कराहकर कहा-सुषमा, मेरे ऊपर दया करो ! मुझे नग्न न करो! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय तो किया ही है ! 'तो क्या हुआ ? सामर्थ्यवान् पुरुष अनिवार्य होने पर न्याय भी करते हैं, अन्याय भी करते हैं ! परिताप और पश्चात्ताप उन्हें शोभा नहीं देते, क्योंकि वे जो कुछ भला-बुरा करते हैं, खूब अच्छी तरह सोच-विचारकर और करणीय समझकर ही करते हैं ! 'तो, सुषमा, तुम मेरे ही शस्त्र से मुझे घायल करोगी ? मेरे ही तर्क का मुझीपर वार करोगी? 'और तर्क आएगा कहां से ? आपने जो कुछ सिखाया है वहीं तो मेरी तमाम जमापूंजी है ! विद्यानाथ थोड़ी देर चुपचाप पड़े रहे। सुषमा का हाथ अब भी उनके हाथ मे था। उन्होंने फिर कहा-तुमने मेरे लिए बड़ा त्याग किया है, सुषमा 'यही बात सब लोग कहते हैं। पर आप भी कहेगे, इसकी भाशा मुझे नह थी।' 'क्यों ? क्या यह सत्य नहीं है ?' ! 'नहीं'