पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७०

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सुख-दान सुषमा ने उधर ध्यान नहीं दिया । उसने आग्रह के स्वर में कहा कल ही से मैं स्टडी शुरू कर देना चाहती हूं। अापको पूरा समय देना होगा। विद्यानाथ ने फीकी हंसी हंसकर कहा-मेरा समय तो सब तुम्हारा है ही, सुषमा । उसमें देना-लेना क्या? वह उठे और लाइब्रेरी मे आकर बैठ गए। सुपमा उठकर बक्त में कपड़े तहाकर रखने लगी। फिर उसे पालनारी ठीक करने की सूझी। वह संध्याकाल तक इसी काम में लगी रही। अंधेरा होने पर घीसू ने पाकर कमरे की, वड़ी वत्ती जलाकर कहा- बीबीजी, खाना तैयार है। सुषमा ने चौककर कहा-अच्छा !"और बाबू कहां हैं ? 'लाइब्रेरी में हैं, सरकार।' सुपमा ने लाइब्रेरी में जाकर देखा, अंधेरे में विद्यानाथ चुपचाप बैठे सर-सर चलते पंखे को घर-घूरकर देख रहे थे । सुषमा ने बत्ती जला दी । प्रकाश होते ही विद्यानाथ ने सुषमा को देखकर कहा-प्रायो, पात्रो ! एक ही दिन में पूरी गृहस्थिन बन गई तुन ! 'सब गड़बड़ हो रहा था। वक्स, पालमारी, सब ठीक किया है । आप क्या धूमने नहीं गए ? यहां अंधेरे में बैठे क्या कर रहे हैं ?' 'दो बार तुम्हें देखने गया । तुम काम में जुटी थीं । लाचार यहां या बैठा।" 'तो चलिए, खाना खा लीजिए! महाराज देर से इन्तजार कर रहा है।' विद्यानाथ ने उठकर कहा- चलो ! रामानन्द बाबू ने पसीने से लथ-पथ अपना भारी भरकम शरीर लिए हांफते- हांफते पुकारा-बिटिया, बिटिया ! अरे श्रो, घीसू ! सब लोग गए कहां? इस हिन्दुस्तान की ऐसी-तैसी! सुषमा बैठी रेशमी कपड़े पर फूल काड़ रही थी। पिता का कण्ठ-स्वर सुन वह ांधी की तरह भागी, और गिरती हुई सी सीढ़ियां उतरकर पिता की छाती से जा लगी। रामानन्द बाबू ने क्रुद्ध होकर कहा- यह कौन कायदा रहा पाने का ! कहीं गिर जाती तो एक दांत भी साबित न वचता। मुंह के वन पिरती तो