पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७१

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सामाजिक कहानियां नाक पिचक जाती। सुषमा ने हंसकर कहा-नाक पिचक जाती तो क्या करते, बाबूजी ? 'क्या करता ? पेरिस से मंगाता नकली नाक, पेरिस से।' 'लेकिन वार टाइम में मिलती कैसे ?' फिर हंसकर कहा-जाने दीजिए, नाक पिचकी नहीं ! हां, हिन्दुस्तान की क्या बात कह रहे थे ? 'कह रहा था.. लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान के लिए जान दो, चन्दा दो, जेल जाओ ! बड़ा प्यारा है हमारा देश, स्वदेश है ! पर देखती हो, कैसा है ? यह पसीने से बुरा हाल है। कितनी गर्मी है इस देश में। सेकेन्ड क्लास का गद्दा जैसे प्राग से भरा हो । पंखा जैसे भाग बरसाता हो । धूल-गर्द से परेशान हो गया। लानत है ऐसे मुल्क पर ! एक मिनट भी यहां न रहूं, पर तेरी मां...' रामानन्द बाबू ही-ही करके हंस पड़े। सुषमा ने हंसकर कहा- अच्छा, चलिए ऊपर ! कपड़े उतारकर ठण्डे होइए। मैं तब तक शर्बत बनाए लाती हूं। 'मगर बर्फ बहुत सी डालना । तोबा ! लेकिन लेकिन"' सुषमा ने रुककर कहा लेकिन क्या बाबूजी ? 'यह तेरा मुंह ।' धूप से सूखे हुए फूल की तरह मुरझाए हुए पुत्री के मुख को देखकर प्रानन्दी जीव रामानन्द बाबू का सारा हास्य-विनोद क्षण भर में ही वरसाती धूप की भांति विलीन हो गया। सुषमा ने हंसकर कहा- क्या हुआ मेरे मुंह को बाबूजी ? क्या सींग निकल आए ? हाथी के जैसे दो दांत तो नहीं उग आए ? 'कुछ नहीं, कुछ नहीं !' कहते-कहते रामानन्द बाबू ऊपर चले गए। वहां "घीसू सामान ठीक कर रहा था। रामानन्द को देखकर उसने पैर छूकर प्रणाम किया। रामानन्द ने व्याकुल भाव से कहा-क्या विदिया बहुत बीमार हो गई थी, घीसू? 'नहीं तो, बड़े बाबू, बीमार तो नहीं हुई।' 'नहीं तो ! भच्छा, अच्छा, देखा जाएगा!' वे बड़बड़ाते हुए इधर से उधर टहलने लगे। इसी समय सुषमा ने शर्वत का गिलास लाकर पिता के हाथ में देकर कहा-थर्मस में जितनी वर्फ थी सब ले भाई हूं। और बर्फ अभी दो मिनट में