पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७३

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सामाजिक कहानियां 'चेहरा ऐसा जैसे पन्द्रह दिन से खाया न हो !' 'बहुत ठीक ! और ?' 'वातें न बना ! सब बातें कह !' सुषमा हंसते-हंसते पिता की गोद में बच्चे की भांति लेट गई। उसने फिर स्नेह से पिता के गले में हाथ डालकर कहा---अम्मा ने मेरे लिए क्या-क्या भेजा है ? पहले वह दो, बाबूजी ! रामानन्द स्नेह से गद्गद हो गए। कहने लगे--तुझे सब चीजें दूगा। विद्यानाथ को कुछ भी नहीं दूंगा ! कहे देता हूं। 'मत देना ! मुझे तो दो !' सुषमा ने हसकर कहा-अच्छी बात है। देखू, क्या लाए हैं ! रामानन्द ने चाभी देकर कहा-खोल फिर वह ट्रंक ! सुषमा ने देखा, ऊपर ही एक केस रखा था। उसमें बहुत सुन्दर हीरे के एक जोड़ी इयररिंग थे। उसने बच्चे की भांति उछलकर कहा- वाह, कैसे सुन्दर हैं ये ! फिर आईने के सामने जा उन्हें कान में पहना और पिता के पास जाकर कहा-अच्छा, सच कहो, तुम लाए हो या अम्मा ने भेजे हैं ? 'अम्मां ने भेजा है तेरा सिर ! मैं लाया हूं, मैं ! कोई पचास जोड़ी वाजार 'मे देखीं। नाक में दम कर दिया जौहरी के। तब यह पसन्द किया । कह, कैसा है ? 'बहुत सुन्दर ! पर, बाबूजी, यह अम्मां ने भेजा है। तुम झूठ-मूठ अपनी तारीफ कर रहे हो !' 'मैं तो जानता ही हूं कि तू अम्मां की बेटी है ! खैर, वह साड़ी भी तो देख ! पसन्द आती है या नहीं ? पूरी लोमड़ी है तू ।' जरी के काम की साड़ी देखकर सुषमा ने कहा-मानती हूं, बाबूजी ! यह आप ही की पसन्द है ! यह रंग अम्मां नहीं चुन सकती थीं। 'वह देहातिन क्या जाने ! उसकी भेजी चीजें भी देख ले ! उस हांडी मे हैं। 'मिठाइयां हैं न ?' सुषमा ने भोली बालिका की भांति हांडी में हाथ डालकर मिठाई निकालकर चखना शुरू कर दिया । इसी समय विद्यानाथ ने पाकर ससुर को नमस्कार किया। रामानन्द 4