पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७४

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सुख-दान एकाग्र चित्त से पुत्री के आनन्द से आनन्दविभोर हो रहे थे । उद्विग्न हो, खड़े होकर कहने लगे-~-अच्छा, आ गए आप ! पर यह सुषमा 'जाने दीजिए, जाने दीजिए ! हां, ठीक है। अच्छी है न ? काम बहुत है, क्यों ? मैं कह रहा था, वेचारी सुषमा यहां अकेती' 'अच्छा, जाने दीजिए उस बात को ! हा, सुषमा को अब मैं ले जाऊंगा। ठीक है न ? विद्यानाथ ने सिर झुकाकर कहा- जैसी आपकी इच्छा हो! पर अभी दो- चार दिन रहिएगा न ? ही, भाई, कल ही सुवह 'ऐसा क्यों, बाबूजी ? हम लोगों ने तो आपके साथ शिमला जाने का प्रोग्राम बना रखा था ! क्यों सुषमा ?'--विद्यानाथ ने हकलाते हुए कहा । सुषमा ने अकचकाकर कहा- हां हा, शिमला जाने का, बाबूजी ! रुक जाइए। 'नहीं, नहीं, मैं रुक नहीं सकता। तेरी मां ने कहा है । पर अभी यह बात रहने दे तू । इनके लिए शर्बत नहीं बनाया ? सारी बर्फ क्या मुझे ही दे दी ?' 'जी, नहीं, अभी बहुत है । एक गिलास आपके लिए भी लाऊँ ?' 'ऐं ! मेरे लिए ? कुछ हर्ज नहीं। ले पा ! मगर शर्त यह है कि बर्फ जरा ज्यादा हो ।' सुषमा शर्वत लाने चली गई । विद्यानाथ एक कुर्सी पर बैठ गए। रामानन्द बाबू देर तक बातचीत का कोई विषय ढूंढने रहे और विद्यानाथ एक अपराधी की भांति चुपचाप उनके सामने बैठे रहे। आखिर रामानन्द बाबू ने नींद से चौके हुए के समान कहा-कुछ चिन्ता नहीं। सब ठीक हो जाएगा। मगर जरा अपनी और सुषमा की तन्दुरुस्ती का ख्याल रखिए। वह बालक है। पर आप तो समझदार है। ऐसा तो होता ही है । क्या वह आपसे झगड़ा करती है ? रोती है ? 'जी, नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है।' 'यही होना भी चाहिए। झगड़ा करने से क्या फायदा ? प्रेमपूर्वक मिल- कर " मेरा मतलब यह है कि बीती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेय ।' रामा- नन्द बाबू के माथे पर पसीना आ गया ! इसी समय सुषमा ने आकर गिलास पिता के हाथ में दिया।