पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७५

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१६८ सामाजिक कहानिया उन्होंने कहा-अरे, पहले प्रोफेसर साहब को दो, बेटी ! कैसी पागल हो तुम! तब तक विद्यानाथ ने स्वयं उठकर गिलास ले लिया। अकस्मात् रामानन्द ने कहा---पगली बेटी, तूने तो शर्वत पिया ही नहीं ! ले, इसे पी !' 'नहीं, बाबूजी ! और है । मैं अभी लाती हूं।' 'तोला।' सुषमा एक गिलास और ले आई, और पिता के पास बैठकर पीने लगी। पर पिता के पास पति के साथ बैठने में उसका दम घुटने लगा। उसने कहा- वावूजी, बेसनी पकौड़ी और वैगनी बनाऊं आपके लिए ? 'बहुत अच्छे पकौड़े बनाती है, सुपमा ! आपने खाए हैं, प्रोफेसर साहब ? अच्छा, बना फिर झटपट ।' सुषमा चली गई। ससुर और दामाद विचित्र झिझक के बीच बातें करने लगे। !' 'बाबूजी के साथ क्यों नहीं गई, सुषमा ?' 'आप ही कहिए, क्यों नहीं गई !' सुषमा ने हंसकर कहा । 'मुझे दण्ड देने को तुम बहुत उतावली हो रही हो, सुषमा !' 'यह आप क्या कहते हैं ?' 'मैं जो कह रहा हूं, वह तुम जानती हो ! तुम्हारा जाना उचित था, अम्मा का हुक्म था। कितनी दुःखी होंगी वह 'वह दुःखी क्यों होंगी ? फिर कभी चली जाऊंगी।' 'पर इस वक्त चली जाती तो तुम्हारा मन बहलता।' 'यहां नहीं बहल रहा है क्या ? प्रोफ! यह आपने खूब युक्ति दी ! मैं तो हमेशा यहां ही रही थी। कभी अम्मां के पास जाती थी, तो जी ही नहीं लगता था। जीजी.... 'उस बात को जाने दो, सुषमा ! यहां तुम न सोती हो, न खाती हो। तुम्हारे हास्य में विषाद, विलास में शैत्य और श्वास में जीवन का अभाव है। तुम मुझे नहीं बहका सकतीं, सुषमा ! मैंने तुम्हें मोहक पक्षी की भांति हवा में