पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७६

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सुख-दान उलझते देखा है, तुम्हारे पाह्लाद पर ईष्या की है। अपनी हंसी में तुम मुझे भुलाना चाहती हो, पर अभी मैं इतना मूढ़ नहीं हुआ हूं।' कुछ देर सुषमा चुप रही। फिर बोली-आप भीतर ही भीतर इतना दुःख पा रहे है ! कहिए, क्या करूं मैं ! मैं आपको दुःखी देख नहीं सकती ! अम्मां सुनेगी, तो क्या कहेंगी? जीजी तनिक उदास देखती थीं तो खाना-सोना भूल जाती थीं ! आप हमारे जीवन की ज्योति हैं। आप सुखी रहें, शान्त रहें, तृप्त रहे, इसीमें मेरे जीवन की सफलता है ! 'दूसरे शब्दों में यही तुम्हारे तप, साधना का ध्रुव ध्येय है !' 'मै तप कौन सा करती हूं ? कहिए तो?' 'मुझ जैसे पुरुष को, जो आयु में तुमसे बहुत बड़ा और विधुर है, तुमने हठ- पूर्वक अपना पति बनाया, जबकि तुम्हें अधिक उपयुक्त जीवन-साथी मिल सकता था ! और इसपर भी हंसती हो, गाती हो, खेलती हो, पिता और माता को भूली हुई हो ! अपने अयोग्य पति को उदास भी नहीं देख सकती हो ! सुषमा, यह क्या तपस्या नहीं है ?' सुषमा हठात् पति के पैरों के पास कालीन पर बैठ गई। उनका एक घुटना अपनी गोद में लेकर उसपर सिर रख लिया। उसने कहा-आप जब इस अना- वश्यक और असम्बद्ध विषय पर बातचीत किया ही चाहते हैं तो सुनिए ! मैं कहती हूं कि आप जो कुछ कहते हैं, यदि वह सत्य भी है तो अतिरंजित और अति अद्भुत है ! सुषमा ?' 'क्योकि स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा सर्वथा हीन है। वह समाज का अंग नहीं है, उपांग है। वह आर्थिक और सामाजिक सभी बातो में पुरुष के आश्रित है। वह विवाह होने पर पति की कमाई, धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, इन सभीको मालिक की भांति भोगती है। घर में पड़ी पड़ी बेकार समय काटती है, गाती-बजाती है, कसीदा-फूल काढती है, या मांगपट्टी करती है, सैर-सपाटे और सिनेमा के प्रोग्राम बनाया करती है, पति को भोंदू और अपने को बुद्धिमती बनाने के कोई मौके नहीं चूकती। दिन में छत्तीस वार रूठती है। व्यंग्य, उपालम्भ उसके शस्त्र है । वह पति के सर्वस्व को पाकर भी असन्तुष्ट ही रहती है। पति उसे अपेक्षा- कृत अयोग्य ही प्रतीत होता है। तिसपर पति उसके सभी अत्याचार सहन करता 'क्यों,