पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७७

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सामाजिक कहानियां है, केवल थोड़े सुखदान की आशा से, जिसकी उसे इसलिए बड़ी आवश्यकता होती है कि वह बाहरी जगत् की सभी सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों के बोझ से निरन्तर थककर चूर रहता है। पर कितनी स्त्रियां पुरुष को वह सब दे सकती हैं ? वे स्त्रियां धन्य हैं, जिन्हें ऐसे पुरुष पति मिले हैं, जो अपना प्रात्म-समर्पण पत्नी को करने के प्रादी हैं ! पत्नी उनपर अबाध शासन चलाती है, और उनकी सम्पूर्ण सम्पदा स्वछन्द भोगती है, तथा उसके धन से निर्वाध जीवन-यापन करती 'और वैसा ही एक पति तुम्हें मिला है, यही तुम कहना चाहती हो ?' 'कहना चाहती तो हूं, फिर?' विद्यानाथ फीकी हंसी हंसकर बोले- जगत् से कहो, मुझसे नहीं। 'आपसे क्यों नहीं ? आप विश्वास नहीं करते, मैं जानती हूं 1 पर विश्वास आपको करना होगा।' विश्वास करने को तैयार हूं, सुषमा !' 'किस तरह आप विश्वास करेगे ? कहिए न !' 'एक बार मुझे 'तुम' कहकर पुकारो, सुषमा ! मुझे सब-कुछ मिल जाएगा! यह तुम्हारा 'आप' तुम्हारी 'न' का प्रतिनिधित्व कर रहा है । जब तक तुम ऐसा नहीं करतीं, हम-तुम दूर-दूर हैं। और प्रव, जबकि हम पति-पत्नी हैं, ऐसा होना कितना बुरा है " सुषमा ने धीरे से कहा- अाप इतने बड़े हैं, इतने विद्वान् ! लोग आपका इतना आदर करते हैं कि बाबूजी भी आपको 'तुम' नहीं कह पाते। फिर मैं कैसे कह सकूँगी ? नहीं, नहीं कह सकूँगी ! 'तो फिर, सुषमा !' विद्यानाथ एक ठण्डी सांस खींचकर धीरे-धीरे चले गए। सुषमा अांखो में पासू-भरे कुछ देर वहीं बैठी रही। फिर जहां पति के चरण थे, वहां हृदय रख- कर उसने अपनी ही आत्मा से कहा-एक बार हृदय में वह भाव उत्पन्न हो जाए, हम छोटे-बड़े का सब भेद-भाव भूल जाएं हम एक हो जाएं तो कैसा सुख मिले ! उसकी आंखों से टप-टप आंसू की दो बूंदें टपक पड़ी। 1 चन्द्रमा की उज्ज्वल किरण के समान एक नवजात शिशु को अांचल में छिपाए