पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुख-दान ! सुपमा अस्पताल के स्पेशल वार्ड के एक कमरे में पड़ी थी। मिनट-मिनट पर पूछ रही थी--क्या अभी गाड़ी का समय नहीं हुआ ? घड़ी ठीक तो चल रही है ? गाड़ी स्टेशन पर भेज तो दी गई है न ?-और सुषमा की माता बार-बार उसे संतोषजनक उत्तर दे रही थीं। सुषमा का पीला किन्तु माधुर्यपूर्ण मुख प्राज मोस से भरे श्वेत गुलाब की भांति शोभायमान था । उसके होंठों में मन्द मुस्कान थी। हृदय में उमंग और उछाह था। धांधी की भांति विद्यानाथ ने कमरे में प्रवेश कर पुकारा सुषमा सुषमा ने होंठों मे मुस्कान और प्रांखों में जल भरकर दोनों हाय फैला दिए । धाय और माता बाहर चली गईं। विद्यानाथ ने भुककर पत्नी के होने पर मधुर चुम्बन दिया । फिर कहा-देखू तो तुम्हारे कौशल को। सुषमा ने आंचल हटाकर अपने हृदय के टुकड़े को दिखा दिया। वह निश्चित अंगूठा चूस रहा था। उसकी आंखों में विद्यानाथ ने अपना प्रतिविम्ब पाया। सुषमा ने कहा-~-देखो! विद्यानाथ एकटक उसे देखते रह गए। फिर उन्होंने जेब से हीरे का एक बहुमूल्य हार निकालकर सुपमा के गले में डालकर कहा- सुषमा बड़ा सुख है, है न? है तो!' 'कहो तो यह सुख-दान किसने किया ?' सुषमा के कमल की पंखुरियों के समान होंठों से निकला-तुमने ! 'नहीं, तुमने 'नहीं, तुमने !'