पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१८०

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टार्च लाइट के लिए यह साधारण घटना थी। जीवन के पौर पर ही उसे विधुर होना पड़ा, पत्नी का पाप पति का दुर्भाग्य हो जाता है । उस दुर्भाग्य ने विनय को स्वाभाविक नहीं रहने दिया। इन्द्रियों की भूख की ज्वाला ने उसे इधर-उधर देखने ही न दिया। जो मिला उसने खाया, जो वचा फेंक दिया। यौवन था, वेतन था, विदेश था और निर्मम सैनिक जीवन था, जिसका व्यवसाय ही हिन्न है। वहां कोमल भावुक जीवन कहां? वैसी-वैसो न जाने कब कितनी टकराई, चूर-चूर हुई और फेक दी गई–विस्मृत भी कर दी गई । परन्तु यह छुई भी न जा सकी ! भावना की भीति ही उसकी रक्षक वनी । असहाय बालिका दुर्भाग्य को चक्की में पिसी हुई अज्ञात वैधव्य का सूनापन माथे पर लिए, नवयौवन के ज्वर को स्कूल की पुस्तकें पढ़-पड़कर दूर किया चाह रही श्री। यही सबने कहा था : स्त्रियों का सौभाग्य-दुर्भाग्य पुरुषों के सौभाग्य- दुर्भाग्य के समान क्षण में बदलने वाला नहीं । वह अपना नारी-भाव उसी अपरि- पक्वावस्था में जान गई थी और अपने दुर्भाग्य की अमिट अशुभ छाया से भी वह अभिज्ञ थी। वह चुपचाप रोगी पिता की दैनिक परिचर्या पूरी कर, मृत माता के लिए एक बूंद आंसू बहाकर स्कूल जाती, धरती पर दृष्टि दिए कोमल तलुओं के मृदुल चिह्न पक्की चमचमाती नागरिक सड़कों पर बनाती हुई अन- धिकारिणी-सी। क्योकि वे सड़कें वास्तव में उसके लिए नहीं, मोटरों पर, बग्घियों पर चलने वालों के लिए थीं। स्कूल से लौटती बार तारकोल की गर्मी से उसके तलुए झुलस जाते थे। घर पहुंचकर पिता की प्रांख बचा वह अपनी ही गोद में लेकर उनपर प्यार के हाथ फेरती। केवल यौवन के स्वप्न की सूचना की ही उमंग ने उसे यह अनुभूति दी थी कि सौभाग्य यदि होता तो कोई इन तलुओं पर इसी भांति सुखस्पर्श करता ! पति को उसने स्पर्श तो किया था पर तव वह युवती नहीं, वालिका थी । पति के साथ का मर्म उसने तव जाना नहीं। अब यौवन ने, शिक्षा ने, संसार ने और भावुक स्वप्नों ने पति को करोड़ों कोमल और प्रिय मूर्तियां उसके सामने नित्य बनानी और बिगाड़नी प्रारम्भ कर दी ! बहुत बार वह उन मूर्तियों के साथ खेलकर हंसी, रूठी, मचली । और उनके टूट जाने से फूट-फूटकर रोई। धीरे- धीरे उसने अनुभव किया कि मन के भोजन से ठोस शरीर की तृप्ति नहीं होती। शरीर के लिए ठोस पति चाहिए-सशरीर पति ।