पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१८१

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१७४ सामाजिक कहानिया विनय से ज्यों ही उसका अकस्मात् साक्षात् हुआ, उसने पहली ही दृष्टि में उसकी भूखी आंखों की याचना को जान लिया। उसने चाहा, याचक को कुछ देकर सुखी करना चाहिए। उसने यह भी अनुभव किया कि कुछ देने से कुछ मिलेगा भी, सम्भवतः सुख । परन्तु उसकी संस्कृत आत्मा ने तभी उसे साव- धान कर दिया कि नहीं, नहीं। ऐमा देन-लेन किसी भी स्त्री-पुरुष में हो नहीं सकता जब तक वे पति-पत्नी न हों। उसकी भील्ता, शील और संस्कार सव मिलकर उसकी प्रवृत्ति का विरोध कर उठे। उधर विनय की याचना सीमा लांघ गई। वह अपने सम्पूर्ण पौरुष को अनादृत करके निरीह भिखारी भाति दीन वचनों पर उतर आया। कहिए, वह सरल, तरल, कोमल वालिका अब क्या करे ? देने ही के लिए जिन सम्पदा का भार वह लिए फिर रही है, उसे याचक सामने पाकर कैसे न दे ? फिर याचक की प्रिय मूर्ति, जिसके दर्शन ही से संचारी भावों का उदय होता है, और उसकी प्रातुर आकुल प्रार्थना, वेदना-प्रदर्शन की ज्वाला का दाह, प्रांखों की गर्म पानी की बूंदें ! कहिए श्राप ? सामने घर को आग में जलता देखकर हाथ में पानी भरा घड़ा रहते कौन उसे आग में झोंक देने के लिए आनाकानी करेगा ? कौन पात्रापात्र का विचार करेगा? परन्तु लड़की ने सत्साहस किया, दान का बोझा लादे ही रही । विनय में ले डालने की जितनी आतुरता थी, दे डालने की उससे अधिक आतुरता हृदय मे रखकर भी उसने कुछ दिया नहीं-दान का बोझा ढोती ही रही । और एक दिन विनय से उसकी जी भरकर बातें हो गई। 'क्या डरती हो मुझसे ? 'जिसे प्यार किया जाता है क्या उससे कोई डरता है ?' 'तो दूर-दूर क्यों ? 'दूर तो तुम्ही हो ?' 'तो तुम मेरे निकट पाती क्यों नहीं ?' 'कैसे?' 'क्या मुझपर विश्वास नहीं ?' 'फिर वही, जब डर नहीं तो विश्वास क्यों नहीं ?' 'विश्वास करती हो?'