पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१८४

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टार्च लाइट १७७ 'यह मर्यादा से विपरीत नहीं है प्रिये, ऐसा सदा होता आया है।' 'नहीं, नहीं, ऐसा नहीं।' 'नहीं प्रिये, देवता साक्षी हैं, वह स्तब्ध रात्रि, नदी का यह शीतल उपकूल, यह चांदी-सी रेती और आकाश में हंसते हुए तारे । प्राभो मेरे निकट।' 'नही, नहीं।' 'आमो!' 'नहीं, नहीं, नहीं।' 'पायो ! 'नहीं, नहीं। 'प्रायो। 'नहीं।' 'प्रायो, प्रायो।' 'न-न-ही. 'पा-मा-मा-मा-यो....... और इस प्रकार उसका देन-लेन प्रारम्भ हो गया। वह अधिकाधिक बढ़ता ही गया। जहां विश्वास है, प्रेम है, परस्पर की एकता है, वहां देन-लेन बढ़ेगा क्यों नहीं । वह बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया। कलरव करते हुए परी, कलकल करती हुई लहरें, टिमटिमाते तारे और चांदी के समान अमल रेती उनके लेन-देन की साक्षी रही। मानव-जनपद के सामने इस लेन-देन का हिसाब रखने की उन्हें फुर्सत नहीं ही मिली। और एक दिन अचानक उसने देखा : उस लेन-देन में असमानता-सी भा गई है । उसे एक दिन अचानक ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने-जो यह समझती रही थी कि वह देती ही रही है-जो लिया है उनका भार कुछ बढ़ रहा है। थोड़े दिनों में संदेह मिट गया। उसने जो दिया था वह सब बट्टे खाते गया। और उसने जो लिया उसके भार से वह एक दिन अधमरी हो गई। उसने डरते-डरते विनय से कहा--- 'यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है, यह तुम्हारा प्रेमोपहार है । इसे सबसे कह दो। कोई यह न समझे कि चोरी की है।'