पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१८८

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बाहर और भीतर है। भैया तो जैसे भाभी में घुल गए हैं। मैं जब उन्हें याद करता हूं, उन्हें प्रणान करता हूं। ऊषा कैसा प्यारा नाम है । जव से मैंने ऊषा से ब्याह किया है, हमेशा ऊषा- काल में जाग उठता हूं। मैं एकटक देखता रहता हूं। कितनी प्यारी सुनहरी किरणों को धरती पर बिखेरती है ! पूर्व के प्रासमान पर पीली लगती है। वह ऊषा-पीला, शांत, उजला पालोक। वह कैसी प्यारी लगती है, किस तरह आनन्द देती है। ऐसे ही मेरी ऊषा भी मेरे जीवन के अंधेरे को छूते ही उज्ज्वल आलोक करेगी। उसके पिता रायबहादुर हैं, सेशन जज हैं, प्रतिष्ठित नागरिक हैं। वह फार्वर्ड घराने की शिक्षिता कन्या है। ऐसे उच्च घराने की शिक्षिता कन्याएं क्या मैंने देखीं नहीं? मेरी ही क्लास में लगभग आधी दर्जन ऐसी कुमारिया पटती हैं। जब वे क्लास में प्राकर बैठती हैं, क्लास जैसे जगमगा उठती है, देखकर प्राण हरे हो जाते हैं, संसार सुन्दर हो जाता है। उन शिक्षा-संगिनियों का वह क्षण-भर का संग मेरी नस-नस को जवान बना देता है । नीला की गहरी आसमानी साडी, चन्द्रमा-सा मुख और हथिनी के समान मस्तानी चाल-प्रोफेसर भी देखते ही रह जाते हैं । नलिनी जव पाती है, अांधी की तरह ; उसके मोती- से दांत और उभारदार सीना देखकर कलेजे मे हिलोरें उठने लगती हैं। लीला की चश्मेदार प्रांखों से जो हंसी बिखरती है, उसपर क्लास भर के लड़के लोट- पोट हो जाते हैं। कहां तक कहूं ? लेकिन मैं तो तीन साल तक यही सोचता रहा कि मेरी ऊषा इन सबसे बढ़-चढ़कर होगी। जब-जब मेरा मन इन स्वदेशी मिसों की ओर मचला, जो बीसवीं सदी में लापरवाही से सड़कों पर अपना रूप छितराती फिरती हैं, तो मैंने उसे समझा-बुझाकर काबू में ही रक्खा । तीन साल इसी तरह मैंने पूरे किए। भीतर ही भीतर मैं ऊषा को अपने बिलकुल नजदीक खीच लाया। मैंने उसे देखा नहीं, समझा भी नहीं, पर इससे क्या ? वह मेरी दुलहिन है । मैं इस बात को नहीं मानता कि जिन स्त्री-पुरुषों में प्रेम हो वे ही ब्याह करें। मैं तो इस उसूल का कायल हूं कि जिनसे ब्याह हो जाए, वे स्त्री- पुरुष आपस में प्यार करें। इसलिए ऊषा को न पाकर भी मेरे प्यार का पौदा तो बढ़ता ही गया।