पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वाहर और भीतर मैंने कहा-ऊपा, मुझे क्षमा करो। अपने इस दास को क्षमा करो। उसने कहा-दास को क्षमा कर सकती हूं, पर पति को नहीं। वह धीरे से अपनी कुर्सी से उठी, और एक मुग्धा वालिका की तरह मेरी गोद में आ बैठी। उसके शिथिल वाहु मेरे गले में आ गए, मैं उस जीवन-संगिनी सखी को- जिमने मेरे विद्रोह को विद्रोह से विजय किया था-इस प्रकार विजित देख फूना अग नहीं समाया। मैंने उसे हाथों-हाथ उठाकर हृदय से लगा लिया । कुछ देर तक हम दोनों दुनिया को भूले वैठे रहे। उसने मेरे गले मे बाहे डालकर हंसते-हंसते कहा-मैंने तुम्हारे पिछले तीन वर्षों की सौ वा पूछ डाली, पर तुमने मेरी एक भी नहीं पूछी। तो क्या मैं यह समझू कि तुम मेरी तरफ से वेफिक्र हो ? मै लज्जित हुआ। मैंने कहा-प्यारी, तुमने तो आते ही युद्ध छेड़ दिया, और इस दास को ऐसा पछाड़ा कि मन सिट्टी-पिट्टी भूल गया । 'अच्छा, लामो, इस सुहाग-रात के उपलक्ष्य में मेरे लिए क्या लाए हो?' मैं बहुत कुछ लाया था-सोने की चेन, घड़ी, एक कीमती बनारसी साडी, एक-दो जड़ाऊ गहने, पर वे सब क्या इस महामहिमामयी, गौरवशालिनी पत्नी के योग्य थे ? मैंने लज्जित होकर कहा- तुम्हारे योग्य तो कुछ नहीं है ऊषा, देते लाज लगती है। 'देखू तो।' उसने एक-एक वस्तु को देखा, हंसी। उन्हें आदर और उछाह से पहना, फिर प्यार भरी दृष्टि से मेरी ओर देखकर कहा-सुहागरात तो तुम्हारी भी है, कुछ मुझसे उपहार न लोगे? 'मैने तुम्हें पा लिया, अब और कुछ न चाहिए।' 'मैंने भी तो तुम्हें पा लिया, फिर भी मुझे उपहार मिले ही। तुम्हारे लिए मे भी कुछ लाई हूं।' मैंने सोचा- रायसाहब ने कुछ रुपए दिए होंगे, या कोई चीज । मैंने कहा- रहने दो, मुझे अब और कुछ न चाहिए। 'हां, वह कुछ उतनी कीमती चीज नहीं है, पर वह मैं तुम्हारे लिए लाई हूँ।' उसके मानी चेहरे पर फिर वही तेज और नेत्रों में चमक उत्पन्न हो गई। मैंने जल्दी से कहा तो मेरी रानी दो न मैं उसे पाकर कृतार्थ हो जाऊं।