पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१९८

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ककड़ो की कीमत यह दिल्ली के बीते हुए दिनों के एक रईस को इजत की हृदयग्राही कहानी है । अाज तो दिल्ली का सब रंग-ढंग ही बिगड़ गया है। बाजार में, मकानों मे, चाल-ढाल में, सड़कों में, सबमें विलायतीपन आ गया है। जब से दिल्ली भारत की राजधानी बनी है और नई दिल्ली की चकाबू को मात करने वाली विचित्र नगरी बसी है, तब से दिल्ली यद्यपि पंजाब से पृथक् अलग सूबा बन गया है, फिर भी उसमें बुरी तरह से पंजाबीपन भर गया है। नई दिल्ली जब वस रही थी। तब ढेर के ढेर पंजाबी सिक्ख और सभी उत्साही लोग-जिन्होने पंजाब के गेहूं और उर्द एवं चने खाकर अपने शरीर-बल को खूब वृद्धि दी है- नई दिल्ली पर चढ़ दौड़े। ठेकेदार से लेकर साधारण मजदूर तक पंजाव के साहसी पुरुष भर गए। उन्होंने नई दिल्ली में प्रारम्भ में कौड़ियों के मोल जमीन ली और बस गए। अब नई दिल्ली में वे सरदारजी होकर मोटर में दौड़ते हैं; वीरभोग्या वसुन्धरा । दिल्ली के महीन आदमी न जाने कहां खो गए। अब जगह-जगह होटल खुल गए हैं। लाइन की लाइन खालसा होटलों की दुकानें श्राप दिल्ली के बाजारों में देख सकते हैं, जहां झटका पकने का साइनबोर्ड लगा होगा। और वहां अनगिनत सरदारगण बड़े-बड़े साफे वांधे, लम्बी दाढ़ी फटकारे, कोट, पैट, वूट डाटे, खाट या टेबुल पर बैठे रोटियां खाते दीख पड़ते हैं। छुआ- छूत को तो इन्होंने डंडे मारकर दिल्ली से नजाकत के साथ दूर ही कर दिया है। शाम को आप जरा चांदनीचौक में एक चक्कर लगाइए। पंजाबी युव- तियां और प्रौढ़ाएं बारीक दुपट्टा माथे पर डाले, सलवार डाटे, मुंह खोले बेफिक्री से कचालू वाले के इर्द-गिर्द बैठकर कचालू-भालू खाती नजर आएंगी। कभी-कभी ब्याह-शादी के जलूसों में जौहरियों की वह देहलदी नुक्केदार पगड़ियां कुछ पुराने सिरों पर नजर आ जाती थीं। परन्तु वह नीमास्तीन अंग- रखे, वसली के जूते, दुपल्ली दो माशे की टोपी, वगल में महीन शर्बती का दुपट्टा

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