पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१९९

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समस्या कहानिया तो बिल्कुल हवा हो गए है । सरदे के दामन और सफेद शर्वती की चादरें लपेटे अब दिल्ली की ललनाएं नहीं दीख पड़तीं। न अब वे जड़ाऊ जेवर ही उनके बदन पर दीख पड़ते हैं जिनकी बदौलत दो हजार जड़िए और पांच हजार सुनार दिल्ली से अपनी रोजी चलाते थे। अब तो बारीक क्रेप की फ़ैशनेविल साड़ियां, उनपर नफासत मे बढ़ी हुई बैलें, बिना प्रास्तीन के जम्पर, जिनमे से माधी छाती और समूची मृणाल-भुजाएं खुला खेल खेलती हैं, साथ में ऊँची एटी के रंग-विरंगे सेडिल-जूते-~~-चांदनीचौक मे देखते-देखते श्रांखें थक जाती हैं । देश की इन पर्दाफाश वह्नों में सुशिक्षिलाएं तो बहुत ही कम हैं । ज्यादातर मोर का पंख खोसकर मोर बनने वाले कौए जैसी है। इसका पता उनके चेहरे पर पुते हुए फूहड़ ढंग के पाऊडर से, होठो में खूब गहरे लगे गुलाबी रंग से, तीव्र सेंट से, तराबोर चटकीले रेशमी रूमाल से, बालों में चमचमाते नकली जड़ाऊ पिनों से अनायास ही लग जाता है। कभी-कभी तो इन अधकचरी मेमसाहिबा की कोमल कलाइयों में दिल्ली फैशन के सोने के दस्तबन्दों और मनगिनत चूडियों के बीच फ़ैन्सी रिस्टवाच तथा पैरो के जेवरों पर ऊंची एड़ी का सै डिल भू मन में अजव हास्य रस उत्पन्न करता है ; खासकर उस हालत में जबकि उनके पालतू पति महाशय पतलून पर लापरवाही से स्वेटर पर कोट डाले उनके पीछे-पीछे उनकी खरीदी चीजों का बंडल लिए बड़े उल्लास से चलते-फिरते और मुसाहिबी करते नजर आते हैं। । वर्ष हुए। उस समय दिल्ली के चांदनी चौक में अब जहा अगल-बगल पैदल चलने वालों के लिए पटरियां बनी हैं, वहां सड़कें थीं। सड़कें कंकड़ की थीं। उनमें बहली, मझोलियां, इबके सरपट दौड़ा करते थे। दोनों समय उन सड़कों पर छिड़काव हुआ करता था। बीचोंबीच अब जहां चमचमाती सीमेंट की पुस्ता सड़क है, नहर पर पटरी बनी थी। उसके दोनों ओर खूब घने वृक्षों की छाया थी । ज्येष्ठ-बैसाख की दोपहरी में भी वहां शीतल वायु के झोंके आया करते थे। उस पटरी पर बड़ी-बड़ी भीमकाय बेतों की छतरियां लगाए खोचे वाले अपनी-अपनी छोटी-छोटी दुकानें लिए बैठे रहते थे। उनमें बिसाती टोपी वाले, टुकड़ी वाले, घी के सौदे वाले, दही-बड़े वाले, चने की बाट थाले, कचालू वाले, मेवाफरोश तथा फल वाले सभी होते थे। उनसे भी छोटे दुकानदार अपनी