पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ककड़ी की कीमत । छोटी सी दुकान को किसी टोकरी में सजाए गले में लटकाए घूम-फिरकर सौदा बेचा करते थे। सैकड़ों आदमी उन वृक्षों की धनी छाया में पड़े हुए थकान उतारा करते थे। घंटाघर के सामने कमेटी की संगीन इमारत के आगे अब जहां महा- रानी विक्टोरिया की मूर्ति रखी हुई है, वहां काले पत्थर का एक विशालकाय हाथी खड़ा था, जिसे जयमल फत्ते का हाथी कहकर वृढ़े आदमी उस पटरी पर वृक्षों की ठंडी छाया में लेटे उनीदी अखिों में खमीरी तम्बाखू का मद भरे भाति- भाति के किस्से-कहानी कहा करते थे। दिल्ली के निवालियों की बोली में एक अजीव लोच था। खोंचे वालों की आवाजें भी एक से एक बढ़कर होती थीं। सब्जी- तरकारियो में जो पहले चलती, वही दिल्ली के रईम खाते थे । भिंडी और करेले जब तक रुपए सेर बिकते थे, कच्ची श्राम की कैरिया जब तक वारह प्राने र विकती थीं, तभी तक वे दिल्ली वालों के खाने की चीज़ समझी जाती थी। सस्ती होने पर उन्हें कोई नहीं पूछता था । बेर के मौसम में लोग बेरो को चाकू से छीलकर उनपर चांदी का वर्क लपेटकर खाते थे। लताफत और नजाकत हर- एक बात में थी। जैसे वे महीन आदमी थे, वैसे ही उनका रहन-सहन भी था। 1 7 फागुन लग गया था। वसन्त पुज चुका था। सर्दी कम हो गई थी। वासन्ती हा मन को हरा कर रही थी। बाजार में नर्म-नर्म पतली ककड़ियो के कूजे बिकने आने लगे थे। पर उनके दाम काफी महगे थे इसलिए यह रईसों का ककड़ी खाने का मौसम था । एक जवान कुंजड़ा सिर पर नारंगी साफा बेपरवाही से बाध, बदन पर तंजेव का ढीला कुरता पहने, गले में सोने की छोटी सी ताबीज़ काले डोरे में लटकाए, आंखों में सुरमा और मुंह में पानों की गिलौरियां दबाए कमर में चौखाने का तहमत और पैर में फूलदार सलेमशाही आधी छटांक का जूता पहने ककड़ियां बेचता पटरी पर मस्तानी अदा से घूम रहा था। उसके हाथ में माऊं की एक सूफियानी चौड़ी टोकरी थी। उसपर केले के हरे पत्तो पर गुलाब के फूलों के बीच ककड़ी के दो रवे रखे थे। टोकरी उसके दाहिने हाथ मे अघर धरी थी। वह अपनी मस्त प्रांखों से इधर-उधर धूरता झूमती-झूमनी ललकती भाषा में आवाज लगाता था—नाजुक ये ककड़ियां ले लो "लैला को उगलियां ले लो 'मजनूं की पसलियां ले लो । नाजुक ये ककड़ियां ले लो। पीछे से आवाज़ आई-ककड़ी वाले, जरा बरे को आना। उसी भाति