पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२०७

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समस्या कहानियां सर्वराहकार था । बूढ़ा और भला आदमी था । हमारा ग्रामीण जीवन शहर के जीवन से सर्वथा भिन्न होता है। श्राप कदाचित् उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । गांव में हम सब छोटे-बड़े, ऊंच-नीच एक पारिवारिक भावना से रहते हैं । न जाने कब से सम्भवतः आदियुग की यह परिवार-भावना हमारे गांवों में अब तक चली आ रही है । सुनते हैं कि प्राचीन काल मे, जब नगर नहीं थे, सभ्यता नहीं थी, जीवन अपने ही में केन्द्रित था और मनुष्य जीवन संघर्ष को सबसे बड़ा मानता था। आदर्शो की, समाज को, सभ्यता की, धर्म-मर्यादा की तव तक उत्पत्ति भी न हुई थी तभी से मनुष्य ने ग्राम-संस्था स्थापित की। सामाजिक जीवन का वह प्रथम अध्याय था । उसीसे मनुष्य ने सामूहिक हितों का सर्जन करके समाज-संस्था की नींव डाली । 'ग्राम' का अर्थ था-समूह । कुछ लोग एकत्र होकर जहा वसते वह ग्राम कहाता था। प्रावश्यक नहीं था कि 'यह ग्रामवास स्थायी हो। वह तो बलग्राम था। ग्राम का अर्थ स्थानसूचक न था, समूहसूचक था ; अतः उस काल मनुप्यों के ये ग्राम जीवन-यापन के संघर्ष से प्रताड़ित धूमा करते थे यहां से वहा, वहां से यहाँ । परिस्थितियों ने उनमें सामूहिक हितों की सृष्टि कर दी । सुख-दुःख, लाभ-हानि सभी में उनके स्वार्थ एकत्र हो गए और एक ग्राम समूह एक परिवार की भांति रहने लगा। इस परिवार में जाति-भेद को स्थान न था । सब वृद्ध पितृतुल्य थे, सब वृद्धाएं माता, और सब युवक-युवतियां परस्पर भाई-बहिन । उनका सवका एक ग्राम था, एक गोत्र था । गोत्र का अर्थ था चरागाह, जहां उनके पशु चरते थे। एक ग्राम का परिचय दूसरे ग्राम के मनुष्यों से इसी ग्राम-गोत्र के द्वारा होता था। प्रत्येक ग्राम और गोत्र का एक कुलपति होता था। उसीके नाम से वह ग्राम-गोत्र प्रसिद्ध होता था। शताब्दियां बीती, सहताब्दियां बीती। नगर बसे, सभ्यता का विकास हुा । जीवन के प्रादर्श बदले, क्रम बदला, समाज बदला, बदलता चला गया। गांवों में भी यह परिवर्तन पहुंचा । सहस्राब्दियों के प्रभाव से गांव भला अछूते कैसे रह सकते थे ! अब 'गांव' स्थान के अर्थ में था-समुह के अर्थ में नहीं । अब लोगों की वस्ती को गांव कहते थे। समाज में अनेक जातिया हो गई थीं। गंगो गांव में भी अनेक जातियां बसती थीं : हिन्दू थे मुसलमान ये