पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२०८

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कहानी खत्म हो गई हिन्दुओं में भी ब्राह्मण थे, भत्रिय थे, जाट धे, अहीर थे, लुहार थे, भंगी थे, चमार थे, धोत्री थे, नाई थे। समाज की व्यवस्था के अनुसार वे अपना-अपना काम करते थे। गांवों में किसानों की ही वस्ती अधिक होती है। जो लोग किसान और किसानों के उपजीवी नहीं होते वे शहरों में, कस्बों मे वसते हैं। जो लोग वहां वमते हैं उनकी वहाँ सम्पत्ति भी हैं । जिमींदार हैं, किसान हैं. उनके खेत हैं, घरबार है । कितीके कम, किसीके अधिक । कोई रईन है, कोई अमीर । इस प्रकार समाज के संगठन का, व्यवस्था का, राजसत्ता का, कानून का, धर्म का-सभी का युगवर्ती प्रभाव गांवों पर पड़ा है। उनसे उनमें परिवर्तन भी पाया है, पर एक प्राचीनतम बात अभी तक गांवों में चली आ रही है। वह है परिवार-भावना । गांव की बूढ़ी भंगन को भी गांव के ब्राह्मण की पतोहू सास कहकर पांव पड़ती है। गांव की प्रत्येक लड़की गांव के प्रत्येक लड़के की बहिन और प्रत्येक प्रौढ़ की लड़की है। गांव मे सब छोटे-बड़ों का सम्बन्ध- चाचा, ताऊ, भाई, भतीजा, देवर, भाभी, काकी, ताई आदि पारिवारिक सम्बन्ध हैं। यहा तक कि गांव की लड़की जिस दुसरे गांव में व्याही जाती है, उस गांव का पानी भी न पीने वाले वृद्ध पुरुष अब भी गांवों में जीवित हैं। यह है हमारे गांवों को परिवार-परम्परा-शताब्दियों, महलाब्दियों से चली पाती हुई। हां, तो मैं उस लड़की की बात कह रहा था। वह हमारे गांव की लड़की थी, और हमारी जमींदारी के सर्वराहदार की बेटी थी। हमारा घर जमींदार का घर था। गांव के सारे ही स्त्री-पुरुष हमारी रैयत थे। वे हमारे घर आते-जाते रहते थे---स्त्रियां भी, पुरुष भी। काम से भी और बेकाम से भी । वाहर पिताजी का दीवानखाना और भीतर जनाने में माताजी का कमरा माने जाने वाले स्त्री- पुरुषों से भरा ही रहता था। हवेनी हमारी बहुत भारी थी। सत्तावन के गदर में अंग्रेज सरकार ने हमारे दादा को इक्कीस गांव इनाम दिए थे और तभी हमारे दादा ने अपनी हवेली के लिए इतनी जगह घेर ली थी कि उसने प्राधा गांव समा जाता था। सस्ते का ज़माना था ) राज, बढ़ई उन दिनों दो-ढाई प्राना रोज मजदूरी लेते, मजदूर एक माना । बड़े-बड़े महराव, मोटी-मोटी दीवारें, लम्बे-लम्बे दालान भी आज भला वन सकते है ? अब तो हम उनकी मरम्मत भी नहीं कर सकते। हवेली वीरान होती जा रही है। अब तो न हाथी न घोडे