पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२०९

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२०० समस्या कहानियाँ न रथ, न बहली । इनके सब थान वीरान पड़े है । अब तो सिर्फ यह मोटर है। और हम हैं। मैं असल बात से दूर होकर बहकता जा रहा था। भीतर मेरे रक्त मे एक गर्मी-सी आ रही थी। और जोश में ये सब बातें मैं कहे जा रहा था-एका- एक मुझे ध्यान पाया। असल मुद्दे की बात तो पीछे ही रह गई। परन्तु सब सन्नाटा बांधे सुन रहे थे । सव जैसे किसी अतीत उदारचिन वातावरण में पहुंच चुके थे । मैंने जरा रुककर कहना शुरू किया--- उन दिनों मैं कालेज में ला का फाइनल दे रहा था। दसहरे की छुट्टियो में जब मैं घर पाया तो पहली बार उसे देखा-'देखा' कहना ठीक न होगा। मुझे कहना चाहिए : पहली बार मेरा ध्यान उसकी ओर गया। इससे पहले बहुत बार देख चुका था-रूखे-विखरे बाल, मैला मोटा प्रोढ़ना, पुराना धाघरा, नगे घूलभरे पैर, पर रंग गोरा । लेकिन गांव में ऐसी बहुत लड़कियां थीं-राह- वाह में, खेत में बहुधा मिल जाती थीं। मैं तो जमींदार का लड़का था। शहर मे पढ़ता था। सूट-बूट पहनकर ठसक से गांव में निकलता था। सो किसी लडकी-लड़के की क्या मजाल जो मुझसे बात करे। मुझे देखते ही दे सहमकर पीछे हट जाते थे । जो समझदार होते थे वे सलाम करते थे। सयानी लड़किया ओट में छिप जाती थीं, छोटी कौतुक से मुझे देखती थीं। इसीसे इस लडकी पर भी पहले कभी मेरा ध्यान नहीं गया। पर इस बार की बात जुदा थी। मैं घर कोई डेढ़ साल में आया था। पिछली गर्मी की छुट्टियों में यूनिवर्सिटी की टीम कश्मीर चली गई थी। मैं भी उसमें चला गया था, अतः छुट्टियों में घर नहीं आया था। घर में दशहरे की सफाई-सजावट की धूम-धाम थी। भाभियां घर सजाने में व्यस्त थीं और वह उनकी सहायता कर रही थी। अब उसके बाल विखरे न थे। ठीक-ठीक बालों की मांग निकली थी, कपड़े सलीके के शहरी ढंग के बारीक और बढिया थे । स्वस्थ तारुण्य उसकी एड़ियों में झांक रहा था। जीवन की ताज़गी मे वह लहलहा रही थी। जीवन में पहली ही बार किसी लड़की को मैंने ऐसी रुचि से देखा था। उसका चेहरा गुलाब के समान रंगीन और पाखें तारों के समान चमकीली थीं। वह हंसती नहीं थी-फूल बखेरती थी, चलती न थी-धरती को डगमग करती थी। मैं क्या कहूं? मुझे एक ही क्षण में ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे