पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१०

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कहानी खत्म हो गई २०१ दस-पांच अंगीठियां मेरे अंग में धधक रही है और मैं तपकर लाल हो रहा है। आग की लपटें मेरी प्रांखो से निकलने लगी और मैं वहां से लड़खड़ाता हुआ ऊपर कमरे में आकर पौधे मुंह पलग पर पड़ रहा ! मैने समझा-मुझे बुचार चढ गया है। इतना कहकर मैं ज़रा चुप हुआ। बीते हुए दिन एक-एक करके मेरे नेत्रो मे आने लगे। लेकिन कमांडर भार्गव बेचैन हो रहे थे। उन्होंने इतमीनान से कुर्सी पर प्रासन जमाते हुए कहा-~~-कहे जाओ, कहे जानो दोस्त; मामला ठण्डा मत होने दो। उन्होंने नई सिगरेट सुलगाई। मैंने आगे कहना प्रारम्भ किया- वह मुझे देखकर लजाई थी, मुस्कराई थी, भाभी की ओट में छिप गई थी, छिपकर उसने फिर मुझे देखा था। वह सव-देखना मुस्कराना, छिपना, लजाना, अब सिनेमा की तस्वीर की भांति अनेक वार, सौ वार, हज़ार बार तेजी से मेरी पाखों में घूम रहे थे । मेरा सिर घूम रहा था । घरती-आसमान भी सब शायद घूम रहे थे। बहुत देर तक मेरी यही हालत रही। पर फिर मुझे जरा सी नींद आ गई। जगने पर मेरा मन कुछ शान्त था। मुझमें समझ आ गई थी। अभी हृदय मेरा कोरा था, तारुण्य मेरा निर्दोष था। इस प्रथम विकार पर मुझे लज्जा नाई। मुझे लगा ; यह खराब बात है। गांव की सभी बहू-बेटियां मेरी बहनें है। पिताजी ने कई बार यह कहा है : हम जमींदार हैं, इससे और भी हमारा गौरव बढ जाता है। मुझे ऐसा न सोचना चाहिए। यह मेरी प्रतिष्ठा-मर्यादा के सर्वथा विपरीत है। मैं मन ही मन अपने को धिक्कारने लगा। और एकबारगी ही उसे मन से निकाल फेंका । लेकिन कहां ? पलंग से उठते ही मैं खिड़की में आ खड़ा हुआ, और नीचे आगन में चारों ओर देखने लगा । जैसे कुछ खो गया है । किसे भला ? यह मैंने अपने मन से पूछा । और जब मन ने कहा—'उसीको' तो मैं अपने पर बहुत झझलाया। वैसे ही कमीज पहने मैं नीचे उतरा और सीधा वाग की तरफ चल दिया। देर तक बाग में और नहर की पटरी पर फिरता रहा। माली से वाते की। मुझे प्रसन्नता हुई कि वह तूफान खत्म हो गया ! अब उसकी कभी याद न