पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१२

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कहानी खत्म हो गई २०३ । मन का यह कलुष कहा नहीं। परीक्षा पास करके मैं घर पर रहकर जमींदारी की देखभाल करने लगा। खेती और बागवानी का मुझे शौक था। उसमे मैने मन लगाया। बड़े भाई डिप्टी-कलक्टर होकर विहार चले गए थे। पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मंझले भाई भी केन्द्र के शिक्षा विभाग में अंडर सेक्रटरी हो गए। घर पर केवल मैं अकेला रह गया । दिन बीतते चले गए। तीन बरस बीत गए । और ईश्वर की कृपा से सुपमा की कोख भरी । मेरे अानन्द का ठिकाना न रहा। एक दिन बूढ़े सर्वराहकार रोते हुए मेरे पास आए। चौवारे आंसू बहाते हुए उन्होंने कहा----वर्वाद हो गया, छोटे सरकार ! लुट गया ! लड़की मेरी विधवा हो गई, उसकी तकदीर फूट गई। मेरी इकलौती बेटी थी सरकार, उसे बेटा वनाकर पाला था। उसपर यह गाज गिरी। बूढ़ा बहुत देर तक रोता रहा । यद्यपि वे सब वाने मैं भूल चुका था। पर स्मृति के चिह्न तो बाकी ही थे । सुनकर मुझे दुःख हुना। बूड़े को तसल्ली दी। और जब वह चला गया, एक बूंद प्रांसू मेरी आंख से भी टपक पड़ा । वाहियात वात थी। लेकिन मन का कच्चा तो सदा से हूं। मेरा मन द्रवित हो गया । बूढे ने कहा था कि वह उसे यहां ले आया है, तब एक बार उसे देखने की भी लालसा हो गई। पर वह सब बात मन की थी-मन में रही। महीनों बीत गए। कभी-कभी उसका ध्यान आता, दया पाती, पर कुछ विशेष आकर्षण न था। सुषमा धीरे-धीरे कमज़ोर और पीली पड़ती जा रही थी। मुझे उसकी चिन्ता थी। ज्यों-ज्यों डिलीवरी का समय निकट आ रहा था, मेरी उद्विग्नता बढती जाती थी---इन सब कारणों से मैं उस विचारी विधवा को भूल ही गया । सुषमा के प्यार ने मुझे अभिभूत कर लिया था। मुपमा मेरे जीवन का प्राधार थी। और अब मैं इस प्रकार के विचारों को भी मन में रखता पाप समझता था । मुझे पाकर सुषमा भी खुश थी। वह देवता की भांति मेरी पूजा करती थी। मिसेज़ शर्मा एकदम द्रवित हो उठीं। उन्होंने कहा--भई बंद करो । श्राप सचमुच देवता हैं । आप जैसा पति पाने के कारण मैं तो सुषमा बहिन से ईया करती हूं।