पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१३

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२०४ समस्या कहानिया , मैं जैसे चीख पड़ा । मेरे गले की नसें तन गई और मुट्ठियां भिंच गई । मैंने कहा-श्रीमतीजी, जल्दी अपनी राय कायम न कीजिए, पूरी कहानी सुन लीजिए। मेरी वहशत और भावभंगी देख मिसेज शर्मा डर गईं। वह फटी-फटी पाखो से मेरी ओर टुकुर देखने लगीं। मैं इस योग्य न था कि इस समय उनसे अपने अशिष्ट व्यवहार के लिए क्षमा मांगू । मैने कहानी आगे बढ़ाई- एक दिन देखता क्या हूं कि यह सुषमा के पास बैठी है। इस समय वह यौवन से भरपूर थी। उस समय यदि वह खिलती कली थी तो आज पूर्ण विक- सित पुष्प । परिधान उसका साधारण था। पर स्वच्छता और सलीका-जो बहुधा देहात में नहीं देखा जाता-उसकी हर अदा से प्रकट होता था। उसका रंग अब ज़रा और निखर गया था, अंग भर गए थे और रूप की दुपहरी उस पर चढ़ी थी । अथवा एक ही शब्द में कहूं तो वह इस समय वसन्त की फुलवारी हो रही थी। एकाएक मैंने उसे पहिचाना नहीं, पर दूसरे ही क्षण जब उसने उठकर हाथ जोड़कर मुस्कराकर मुझे प्रणाम किया, मैंने उसे पहचान लिया। हाय री तकदीर ! वही मुस्कराहट, वही चितवन ! क्षणभर को मेरे शरीर मे रक्त की गति रुक गई और मेरे पैर कांपने लगे। साहस करके मैने पूछा, 'अच्छी हो' तो उसने लाज से सिर झुकाकर सिर्फ 'जी' कह दिया । छी छी! फिर वह भूली हुई बातें न जाने कहां से जीवित हो उठी। वही मुस्कराना, छिपना और आंखें मैं तेज़ी से वहां से भाग आया । सीधा ऊपर जा दरवाज़ा बन्दकर अपने शयनागार में आ पड़ा। एक नाहत हिरन की भाति-जिसे अभी-अभी शिकारी ने तीर मारा हो । उस दिन मैंने खाना नहीं खाया । सिरदर्द का बहाना करके पड़ा रहा। सुषमा की परेशानी ने मुझे और भी पागल बना दिया। कभी यूडीक्लोन सिर पर डालती, कभी नर्म-गर्म हथेलियों से सिर दबाती, कभी वाल सहलाती, कभी डाक्टर बुलाने का आग्रह करती। मुझ बेईमान, पाखण्डी, मक्कार के लिए वह उस एक ही दिन में आधी रह गई। मैंने जलती हुई आंखों से मिसेज़ शर्मा की ओर देखा और कहा--काहिए, कहिए, अव भी आपको सुषमा पर ईर्ष्या होती है, परन्तु अभी ज़रा और टहर , जाइए !! एकाएक मेरी अावाज मुर्दे की जैसी मरी हुई हो गई । खूब जोर लगाकर