पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१४

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कहानी खत्म हो गई २०५ मैं कहने लगा- दूसरे दिन सुबह होते ही मैं जमींदारी के जरूरी काम का बहाना करके इलाके पर चला गया। ६-७ दिन तक मै घर नहीं लौटा । श्राप दाद दीजिए मेरे जानवरपन की, जवकि सुपमा की यह हालत थी, इस कदर नाजुक; कोई उसे देखने वाला न था । पहली ही डिलीवरी थी उसे, और मैं नफ्त का गुलाम कहा, किस हालत में फिर रहा था। मैं आपसे नहीं छिपाना चाहता था कि मुझे न खाना भासा था, न नींद आती थी; न दिन चैन पड़ता था, न रात को कल पडती थी। वही शैतान आन्वें, वही मुंह छिपाकर मुस्कराना, वही गहरे गुलाबी गाल, कम्बख्त न जाने कहां से उभरे चले आते थे, मेरी बदनसीब नज़रों में? जैसे मेरे रक्त को प्रत्येक बूंद में उन प्रांखों का खेत उग आया था ! उस चितवत की, उस मुस्कान की रिमझिम बरसात हो रही थी । जी हां, एक क्षण को भी मै उसे न भूल सका, एक क्षण को भी मैंने सुपमा को याद नहीं किया एक क्षण को भी मैंने उसकी असहायावस्था पर गौर न किया । अन्त में मैंने अपने-आपको धिक्कारा, मन में पक्का इरादा किया, उस शैतान को मैं गांव से निकाल दूगा, एक क्षण भी न रहने दूगा! सातवें दिन' मैं घर लौटा । अभी दहलीज पार करके मैं सुषमा के कमरे में जा ही रहा था कि देखता क्या हूं-सामने से वह आ रही है मुझे देखकर वह ठिठक रही । निकट आने पर उसने सुस्कराकर और हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया । फिर वह मुस्कराती हुई ही चली गई । अजी, मुस्कराती हुई नहीं--मेरे मन में छिपी समूची वासना का सांगोपांग विवरण पड़ती हुई। वह गहरे लाल रग का लहंगा और उसपर चिलकेदार दुपट्टा पर्ने हुई थी। भाड में जाय यह ! गुस्से से होंठ चबाता हुअा मैं सुषमा के कमरे में पहुंचा। कल ही से उसे ज्वर था। मुझे देख वह मुस्कराई और मैं उसकी जलती हुई हथेलियों को मुट्ठी में दबाए देर तक चुपचाप बैठा रहा । कुछ बोलने की साव ही न रही । सुषमा ही बोली । उसने कहा- 'गुमसुम क्यों हो?' 'कुछ नहीं । बहुत थक गया हूं, बहुत दौड़-धूप करनी पड़ी।' सुषमा एकदम व्यस्त हो उठी। वह लेटी न रह सकी । उसने अधीर स्वर में कहा-मुंह कैसा सूख गया है ! बिस्तर लगवाती हूं, जरा सो रहो। उसने