पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१५

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समस्या कहानियां श्रावाज दीअरी और वह या खड़ी हुई । मैंने उसकी पोर नहीं देखा। सुषमा ने कहा-जरा झटपट यहीं विस्तर लगा दे। बाबू की तबियत ठीक नहीं मैंने बहुत ना-नूं की। वहां-सुषमा के सामने मैं अपनी दुर्बलता प्रकट नहीं करना चाहता था। मैंने कहा-नहीं नहीं, ऐसा ही है तो मैं ऊपर अपने कमरे में जा सोऊंगा । मगर तुम श्राराम करो। तुम्हें ज्वर है। पर उस साध्वी पतिप्राणा को अपने ज्वर की क्या चिन्ता थी? क्या उसे उस पाखण्डी के मन का ही हाल मालूम था ? उसने कहा--तो जा बहिन, ऊपर ही जाकर बिस्तर लगा दे। मेरा निषेध सुषमा ने माना नहीं । उसे भेज दिया। मैं जड़ वना वहीं बैठा वह लौटकर पाई । उसी तरह मुस्कराकर उसने कहाभयाजी का विछौना बिछा है। 'भैयाजी', यह शब्द जैसे बन्दूक की गोली की भांति मेरे मस्तिष्क में घुस गया। लेकिन मुझे तो गांव की सभी लड़कियां भैयाजी ही कहती हैं। वही गाव का प्राचीन पारिवारिक सम्बन्ध । परन्तु इस समय तो यह शब्द मेरे मुंह पर एक तमाचा था। मैं वहां न टहर सका । तेजी से उठकर ऊपर अपने कमरे में बिस्तर पर आ पड़ा। कमरे की चटनी भीतर से चढ़ा ली। क्यों ? मैं कह नहीं सकता। बहुत देर तक मैं सोता रहा। जव उठा लो शाम हो चुकी थी। उठकर मैं सीधा सुषमा के पास जा बैठा। क्षण-भर बाद ही वह चा' लेकर आई। चा' टेबुल पर रखकर चली गई । सुषमा जानती थी कि मैं इंतज़ार नहीं कर सकता, खासकर चाय का। पर यह बात क्या यह भी जानती है ? उसके जाने के बाद मैंने सुषमा से कहा-क्या इसे तुमने नौकर रख लिया है? उसने हंसकर कहा-~-नहीं, नहीं ! बहुत अच्छी लडकी है। मुझे अकेली और बीमार देखा तो आप ही मेरे पास आ गई। तभी घर के काम-काज में जुटी है। तुम्हारे जाने के बाद से रोज़ ही दिन-भर यहीं रहती रही है। कितना सहारा मिला मुझे इससे ! तुम्हारे ऊपर जाने के बाद ही मैंने इससे कह दिया