पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१६

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कहानी खत्म हो गई २०७ । था कि तुम चा' का इन्तजार नहीं कर सकते। चा तैयार कर देना । सब बातें मुझसे पूछकर यह न जाने का से बैठी इन्तजार कर रही थी। सुषमा हंस दी। और मैंने मन का उद्वेग छिपाने को एक बिस्कुट समूचा ही मुह में ठूस लिया । अब मेरे जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ होने में देर न थी। मुझे सुपमा शीघ्र ही कुगुम-कोमल पुत्र देगी, जो हम दोनों के प्रेम का जीता-जागता प्रमाण होगा। अब मुझे इस शैतानी विचार को मन में नहीं लाना चाहिए। फिर मेरा अपना चरित्र है, प्रतिष्ठा है, उसका भी तो सुझे ख्याल रखना चाहिए । जैसे मेरे भीतर एक नए बल का संचार हुआ, मेरे प्रोों पर हसी खेल गई, मैंने बड़े आनन्द ने चाय का एक प्याला अपने हाथ से बनाकर सुपमा को दिया। सुषमा प्रानन्द से विभोर हो गई। कुछ तो अपनी अस्वस्थता के कारण और कुछ मुझे अस्त-व्यस्त देखकर वह बहुत परेशान हो गई थी। अब मेरे हाथ से प्याला लेकर वह खुश हो गई। उसने कहा-अव तो कुछ ही दिनों की बात है। उसकी प्रांखे हस रही थी। और मैं पानन्द-सागर में गोने लगा रहा था। अपनी मुर्खता पर मैं मन ही मन हंसने लगा। जुड़ेल कही की । धुत् ! घुत् ! सुपमा ने कहा- पात्रो, जरा घूम आयो, तवियत ठीक हो जाएगी। खायोगे क्या, मिसरानी से कह दो। मैंने कहा- सुपमा, प्राज तो मैं तुम्हारे साथ ही खाऊंगा ! जो चाहे वनवा लो। लेकिन, उटना नहीं-तुम्हें ज्वर है । जरा शरीर का ध्यान रखो। स्त्रियां कितनी भावुक और कोमल होती हैं। मेरी इतनी ही सी बात पर सुषमा गद्गद हो गई । और मैं अपने को तीसमारखां समझने लगा था। अपनी समझ मे तो मैंने मन का सारा ही मैल धो डाला था । अव तो दिल में कही किसी कोने में भी न वह हंसी थी, न चितवन । इसे कहते हैं मार पर विजय । मदनदहन शिव ने इसी भांति किया था। बुद्ध ने भी मार पर इसी भाति विजय पाई थी। मैं कपड़े बदलकर ज्यों ही सीढ़ियों से उतरा। देखता क्या हूं, वह सुपमा के लिए एक कटोरा दूध लेकर उसके कमरे मे जा रही है। मैंने मन में कहा- इसकी ओर देखना ही न चाहिए । मैं आंखें नीची किए दस कदम बढ़ गया । वह भी उसी भांति अांखें नीची किए आगे बढ़ गई। लेकिन न जाने क्यों मैंने ठिठक- कर मुंह फेरकर उसकी ओर देखा ! छी, छी, वह भी मुह फेरकर मेरी ओर देख