पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१७

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समस्या कहानिया रही थी। मुझे उचटकर देखते देख वह चल दी। गुस्से से मेरा शरीर कांपने लगा, और मै तीर की भांति वहां से बाहर निकल गया। कमांडर भारद्वाज जब्त न कर सके । ठठाकर हस पड़े। बोले-यह गुस्सा किसपर था, उसपर या अपने पर? क्षण-भर को सभी के चेहरों पर मुस्कान दौड़ गई। पर मिसेज़ शर्मा बहुत गम्भीर थीं। मेरे अपर घड़ों पानी गिर गया ! मेरी वाणी रुक गई । बहुत देर तक कोई न बोला। । मेजर वर्मा एकाएक बहुत उत्तेजित हो उठे। वे कुर्सी से उछलकर खड़े हो गए। हाथ की सिगरेट उन्होंने फेंक दी और तेज नजर से मेरी ओर ताकने लगे। मैं समझ गया, मेजर वर्मा कहानी के दूसरे छोर तक पहुंच चुके हैं । और अब उनके मस्तिष्क में वह तरबूज मेरे होंठ नीले पड़ गए। और अांखें पथरा गई। मैने एक असहाय मूक पशु की भांति, जिसकी गर्दन पर छुरी चल गई हो, करुण-कातर दृष्टि से मेजर वर्मा की ओर देखा । मिसेज़ शर्मा घबरा गई । उन्होंने कहा-आपकी तबियतः तो एकदम बहुत खराब हो गई है, चौधरी साहब । 'नहीं, मैं ठीक हूं।' कुछ प्रकृतिस्थ होते हुए मैंने कहा । मेजर वर्मा चुपचाप कुर्सी पर बैठकर मेरी ओर ताकते रहे । मरे हुए स्वर में मैने कहा- मेजर, सारी बातें मैं न बता सकूगा। आप और ये सब सज्जन मुझे क्षमा करें। डिलीवरी की खटपट में मैं फंस गया । सुषमा बहुत बीमार हो गई थी। उसे मसूरी ले जाना पड़ा । पुत्र-जन्म का उत्सव धूम-धाम, शोर-गुल, बाजे-गाजे से हुआ, ये सब बातें क्या कहूं । ४-५ महीने इन सब बातों को बीत गए । एक दिन शाम को जब मैं धूमकर लौट रहा था, गांव की जनशून्य राह पर मैंने देखा : चादर में लिपटा हुआ कोई खड़ा है। वही थी। और मेरी ही प्रतीक्षा में खड़ी थी। निकट पहुंचने पर उसने कहा-बड़ी देर से खड़ी हूं ज़रा उधर चलिए-मुझे आपसे कुछ कहना है । सच पूछिए तो मैं अव उससे सचमुच ही कतराने लगा था। वह नशा तो काफूर हो चुका था। और इधर महीनों से उससे मुलाकात ही नहीं हुई थी।