पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२४४

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२३४ राजनीतिक कहानियां हम पृथ्वी की महाविजयिनी शक्ति के सम्मुख चल रहे हैं-भरेंगे या विजयी होगे ।---आवेग मे ही ये शब्द मुख से निकल गए। उसके बाद मेरा बाहुपाश कब शिथिल हुना, कब वह युवक खिसककर मेरे पैरों में आ गिरा, मुझे स्मरण नहीं जगत् मे असाधारण होना भी कैना दुर्भाग्य है ! पृथ्वी की असंख्य पाखें उसीके छिद्रान्वेषण में लगी रहती हैं। वह यदि जगत् के लिए मरता है, तो जगत् की दृष्टि में यह उसका साधारण सा कर्तव्य है, किन्तु यदि वह एक क्षण भी अपने लिए जीता है तोमा नो पाप का पर्वत उसके सिर पर लद जाता है। क्या यह दुर्भाग्य नहीं ? अरे भाई, सभी कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, नर-नारी अपने ही लिए तो जीते हैं ? अपने क्षण भर के सुख और जीवन के लिए अनगिनत प्राणियों को नष्ट कर डालते हैं। कोई भी तो उनसे कुछ नहीं कहता। फिर हमपर ही यह अग्नि-वर्षा क्यों ? मैंने सब कुछ त्यागा। जीवन के कष्ट और आपत्तियों की क्या कहूं, अव तो मवको पार कर गया। अब उनकी स्मृति से क्यो मन को सन्ताप दूं ? परन्तु शरीर और हृदय, ये जब तक जीवन-तत्त्व से सयुक्त हैं, तब तक तो प्रकृत संन्यस्त में सदैव कमी रहेगी ही। यह मेरा अब तक का अनुभव है। मैं संन्यस्त हुना सही, पर पिता का हृदय कहां रक्खा जाए? पुत्र तो आत्मा और रक्त-मांस मे से भाग लेकर बना था, उसका मोह कहां तक त्यागू ? कहा तक निर्मोही वनू ? उसकी मा तो उसे जन्म देकर ही मर गई थी। उसने अल्प जीवन में जो कुछ दिया, अब भी वह अतीत के सब सुखों के ऊपर नृत्य कर रहा है। उस मधुर स्मृति को एक अमिट रेख यह पुत्र था। इसे मैंने हाथों-हाथ पाला और उसे, जैसा कि मैंने चाहा था, संसार के सामने, क्रान्ति के नव्य कुमार के रूप में पेश किया। लक्षावधि देशवासी उसपर नाज करते थे और मै अपनी सफलता पर मुग्ध होता था, उसी तरह जैसे किसान अपने कड़े परि- श्रम से सीची हुई खेती को पकी देखकर मुग्ध होता है । फिर भी मैं राजा साहब के वचन को न टाल सका । उनके भयानक साहस से मैं अवगत था। उनकी प्रत्येक गतिविधि से मैं परिचित था । पुत्र के अनिष्ट का भय पद-पद पर स्पष्ट था। किन्तु मुझे सहमत होना पड़ा। इसके अनेक