पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२४५

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जीवन्मृत २३५ कारण थे। देश के नाम पर बलिदान होने की मैं स्वयं उच्चस्वर से पुकार कर चुका था, पुत्र को भी वही शिक्षा दी थी। अव उसे उस मार्ग से रोककर क्या राजा साहब और अन्य साथियों की दृष्टि में अपदार्थ बनता? लड़के में भी साहम और उत्साह था। पर उसके मर्मस्थल की दुर्बलता मैं जानता था । विला- सिता उसे गिराएगी, मुझे भय था। उसने वस्तुस्थिति को समझा ही नहीं । जब उसने स्वयं नवजात पुत्र और पत्नी का विसर्जन कर उस भयानक यात्रा और कठोर कर्तव्य-पथ पर राजा साहब का अनुकरण करने का अपना इरादा प्रकट किया, तब मैं स्तब्ध रह गया। मैंने कहा---पुत्र, राजा साहब का मैं चिर- सहयोगी हू, परन्तु केवल मुख से। तुम तो इतने उत्साह से यह बात कह रहे हो; कदाचित् तुम अवश्यम्भावी विपद् से अवगत नहीं। कार्य की गुरुता और कठिनाई तुम यथावत् नहीं समझ रहे हो। यह तुमसे होने वाला कार्य नहीं, महा- दुस्साध्य है। यह लौहपुरुषों का महकमा है। इसके लिए वे पुरुष चाहिएं जो लोहे का शरीर, लोहे की आत्मा और लोहे का हृदय रखते हों। मेरे बेटे, मैं तुम्हें जानता हूं। तुम वह नहीं हो ! घर में बैठो, बैठे-बैठे जो बने करो। देश और जाति के लिए यही यथेष्ट है । उसने एक न सुनी। वह मूर्ख मुझ पिता के सम्मुख भी कायर बनना न चाहता था। उसने अस्वाभाविक करारे स्वर में हर प्रदर्शन किया और मुझे सहमति देनी पड़ी। वहीं हुआ, जिसका भय था। पृथ्वी के उस छोर पर वे विपत्ति के अग्नि- समुद्र में बड़े कौशल और सावधानी से घुस रहे थे। अरे, जव अग्नि-समुद्र में धुसना था, फिर कौशल क्या ? वह फंस गया, राजा साहब बाल-बाल बचकर निकल भागे। मैं यहीं बैठा उनकी गतिविधि का निरीक्षण कर रहा था। महासमर की प्रचण्ड ज्वालाएं यूरोप को भस्म कर रही थी। उसकी चिनगारी कब मेरी कुटी को भस्म कर देगी, यह कहना शक्य न था। यूरोप के दैनिक पत्रो को देखने के अतिरिक्त मैं और कुछ कर ही न सकता था। मन ही न लगता था। उसके उस पत्र पर सरकारी गुप्त विभाग के सर्वोच्च अधिकारी की एक टिप्पणी थी। उससे समझ गया, पुत्र की मृत्यु का मूल्य बहुत अधिक है। वह मूल्य मेरे पास था तो, पर मैंने बहुत चेष्टा की कि प्राण देकर उस मूल्य को न दू। पर हार्य अवसर ही ऐस आ गया मेरे प्रामों का कुछ भी मूल्य इस सौदे में - t