पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२४६

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२३६ राजनीतिक कहानिया न रहा । उसने सब कुछ कह दिया था। उसके वक्तव्य की सत्यता के प्रमाणमात्र मेरे पास थे। मैं कई दिन तक उसके बच्चे को छाती से लगाकर तड़पता फिरा अपने संन्यास वेश की असत्यता मुझपर खुल गई। श्रोह, मुझे वह काला काम करना पड़ा। मैने पुत्र के प्राणों की पिता की तरह रक्षा की। पर उसके बदले हुना क्या ? देश भर में तलाशियों और गिरफ्तारियों की धूम मच गई । होनहार, अटपटे वीरों ने हंसते-हंसते फांसी पाई । कुछ कालेपानी जाकर वहीं धुल गए। कुछ युग व्यतीत कर लौट आए । देशोद्धार का सुयोग अतल पाताल में चला गया। मेरे दुष्कर्म का यह भेद एक राजा साहब को ही मालूम था, पर वे भारत में प्रा न सकते थे। एक पत्र उन्होंने भेजा था। प्रोह, जाने दो, जब उसे भस्म कर दिया है, तब उसकी चर्चा क्यों ? जिस बात के भूलने में सुख है, उसे हठपूर्वक स्मरण क्यों किया जाए ? महाजातियों का यह संघर्ष कैसा सुन्दर है ! यदि मैं भी इन्हीं जानियो मे जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त करता तो क्या आज चूहे की तरह इधर से उधर प्राण बचाता फिरता ? महाशक्ति की सेनाओं की कमान इन्हीं हाथों में होती, पर जीवन में कभी वह क्षण पाएगा भी ? पाए या न पाए, मैं अन्त तक न थकूगा। भोजन और सोना कई दिन से नसीब नहीं हुए। नाविक के वेश मे, मछलियों की सड़ी गन्ध में छिपे-छिपे सिर भन्ना गया, पर विपत्ति तो अभी सिर पर है । वह दूर पर रण की तोपों का गर्जन सुनाई पड़ रहा है । वह सर्चलाइट का श्वेत्त सर्प-समुद्र पर लहरा रहा है । किन्तु प्रभात होते ही तो किनारे लगेगे ? किनारे पर शत्रु हैं या मित्र, कौन जाने ? मित्र हुए तो इस बार जान बची, पर यदि शत्रु हुए तो आज ही प्राणान्त है। जीवन भी कैसी चीज़ है ? इस समय राजमहल याद आ रहे हैं। महारानी मानो करुण नेत्रों से झांक रही हैं, परन्तु क्या इस महायुद्ध में मैं अपने वंशधरों की भांति अपने देश के लिए जूझने में पीछे रहू ? जूझने के ढंग तो यथावसर निराले होते ही हैं, परन्तु जिन विदेशियों को मै मित्र बनाकर अपना और अपने देश का ऐसा गम्भीर दायित्व सौंप रहा हूं, वह क्या सच्चे रहेंगे ? एक विदेशी से प्राण छुड़ाने को दूसरे का आश्रय लेना सुन्दर नीति तो नही, परन्तु दूसरी गति भी नहीं थी। फिर, अब लौटने का उपाय भी तो नहीं एक बार देश में आग फैल जाए। अमन, पाराम और शान्ति की इच्छा नष्ट