पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२४७

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tyy? जीवन्मृत २३७ हो जाए, देश जूझ भरने की हौस मन में उत्पन्न करे, फिर तो आजादी स्वयं ही श्रा जाएगी। यह महासमर तो महाराज्यों के भाग्य का निबटारा करेगा, महाजातियों के भाग्य का निवटारा तो कहीं अन्यत्र ही होगा । सुदूर पूर्व में शान्त समुद्र की लहरें रक्त से लाल होंगी एशिया की प्रसुप्त आत्मा जागरित होकर हुंकार भरेगी, तव यूरोप का श्वेत दर्प ध्वंस होगा । उसी दिन के लिए तो मेरा प्रायो- जन है। मोह ! अभी मुझे बहुत काम हैं, पहली यात्रा में ही यह विघ्न हुआ। अभी मुझे बारम्वार चीन, जापान, रूस, अमेरिका और न जाने कहां-कहां जाना होगा। महाविध्वंस क्या यों ही हो जाएगा? परन्तु वह युवक तो फंस गया। बुरा हुभ्रा । बचना सम्भव ही न था। महाभाहस उसमें न था । चिन्त- नीय बात तो यह है कि सब कुछ उसे ज्ञात है । आवश्यक कागज भी बहुत से वहीं रह गए हैं। तब वह क्या प्राणों के लोभ से देश को चौपट करेगा? विश्वासघाती होगा ? भरने में क्षण भर का ही तो दुःख है। वह अवश्य उसे सह लेगा, भेद न खोलेगा । फिर भी सचेत रहना प्रावश्यक है । मुझे अब नया कार्यक्रम बनाना उचित है। अपने मार्ग को गति भी बदलनी उचित है। ये नाविक विश्वसनीय हैं, परन्तु मैं कुछ और ही करूंगा। प्रोह देश ! मेरे प्यारे स्वदेश !! यह तन, मन, धन, सब तुझपर न्यौछावर है। तेरी एक-एक रज-कण में मेरे जैसे लाख शरीर बनते-बिगड़ते हैं । फिर इस शरीर का क्या मोह ? मेरे प्यारे स्वदेश ! मैंने सब कुछ तुझे दिया है। अब प्राण भी दूगा । इस धरोहर को पास रखने योग्य अव मेरे पास ठौर भी नहीं रह गई है । आह, क्या कभी मैं तुझे देख सकूँगा? वह नील श्यामल रूप ! अरे, बचपन की क्या-क्या बातें याद आ रही है ? परन्तु नहीं, मुझे इस समय कायर नहीं बनना चाहिए। मैं प्रण करता हूं, देश की भूमि पर तभी पैर रक्तूंगा, जब उसे पूर्ण स्वाधीन कर लूंगा। प्राण बचे तो, पर वे मोल विक गए थे। उनपर मेरा काबून था। अब स्वेच्छानुसार मैं न कुछ कर सकता था, न सोच सकता था ! उन बहुमूल्य गोपनीय बातों के बदले मुझे गुप्त विभाग में उच्च पद मिला था। मेरे प्राण जैसे मेरे लिए कीमती थे, वैसे ही उस गुप्त विभाग के लिए भी थे । मेरा जीवन रहस्यमय था । मेरे हृदय में कुछ और भी है, तथा मेरी प्रोट में कुछ रहस्य-भेद 1