पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जीवामृत २३६ इसीलिए गोद के शिशु को धरती में पटककर परोक्ष पति के नाम पर मरना मेरे लिए सम्भव ही न रहा । मैं सुख-दुःख के बीच झूलती रही । मैं मृत्यु और जीवन की ड्योढ़ियों में पड़ी ठोकर खाती रही। मुझ दुखिया के कष्ट, भूक मनोवेदना का अनुमान तो कीजिए? मेरी बात पूछने वाला कौन था ? मेरे मन को सहारा किसका था? मैं पति के सहवास-काल की प्रत्येक घटना, प्रत्येक बात, अपनी प्रांखो से प्रतिक्षण देखती, सोते समय और जागते समय भी ! मैं कभी हंसती और कभी रो देती। कभी सोते-सोने या बैठे ही बैठे चमक उठती। मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो चे आ गए। उन्होंने अभी-अभी शिशु कुमार को आवाज दी है। कण्ट-स्वर को में प्रत्यक्ष सुन पाती ! मैं द्वार की ओर दौड़ती, परन्तु तत्काल ही समझ जाती, श्रोह ! कुछ नहीं, यह सब मनोविकार था। मैं नहीं कह सकती कि सोने के समय जागती थी या जागने के समय मोती थी। प्रायः मैं जड़वत् बैठी रहती। उस समय में किसीकी कोई बात ही न सुन पाती थी। मैं उस समय देखती थी-वे उन्हे पकड़कर फांसी पर चढ़ा रहे हैं, उनके शरीर में तल- वारें घुसेड़ रहे हैं। शरीर रक्त से भर रहा है। मैं एकाएक चीत्कार कर उठतो, और फिर धरती पर धड़ाम से गिरकर बेहोश हो जाती थी। शिशु कुमार को देखकर ही मैं सचेत रह सकती थी। मुझे तव वास्तव में हंसना ही पड़ता था : वह उनके सिखाए ढंग पर मेरे गले में बाहें डालकर जब जरा-जरा तोतली वाणी से सितार को झनकार के स्वर में कहवा-माताजी, 'रूठो मत' तब मैं मानो किसी गूढ़ जगत् से एकाएक भूतल पर पाती। होंटों पर मुस्कान न पाती, पर नेत्रों में आंसू आ जाते थे। उन्हें शिशु कुमार से छिपाने के लिए मैं उसे जोर से छाती से लगा लेती थी। उस दिन स्वामीजी एकाएक मेरे सम्मुख आ खड़े हुए। उनके होंठ कांप रहे थे और पैर लड़खड़ा रहे थे। उनके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं, वे कुछ कहना चाहते थे. पर बोली न निकलती थी ! मैं घबराकर उठ खड़ी हुई ? मैंने कभी उन्हें इतना विचलित न देखा था। मैंने कहा-वात क्या है पिताजी ? 'वह जीवित है, वह पा रहा है वे अधिक न बोल सके। आंसुओं की धारा उनके नेत्रों से वह्न लगी। उन्होंने मुंह फेरकर अच्छी तरह रुदन किया। मेरे शरीर में रक्त की गति रुक गई। मेरी हड्डी-हड्डी कांपने लगी। मैंने बड़े रहने की बड़ी चेष्टा की, पर न रह सकी । मेरा सिर घूम रहा था, छाती फटी