पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५०

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२४० राजनीतिक कहानिया -- पडती थी। मैं बैठ गई या गिर गई, स्मरण नहीं। स्वामीजी ने घूमकर कहा-वेटी, आज सातवीं तारीख है। दस तारीख के प्रातःकाल जहाज बम्बई के बन्दरगाह पर लगेगा। हमें आज ही चलना होगा। तुम अपना आवश्यक सामान ले लो । अभी समय है । गाड़ी साढ़े नौ पर खुलती है। वे इतना कहकर चले गए। मार्ग मे मै जीवित थी या मृत, नहीं कह सकती। बम्बई कब पहुची, स्मरण नहीं। रेल दौड़ रही थी, मैं मानो आकाश में घुसी जा रही थी, मानो मै अभी मूर्य-मण्डल को भेदन करूंगी। डेक पर सहलावधि नर-नारी खड़े थे । एक भीमकाय जहाज उन्मत्त समुद्र की जल-राशि के हृदय को विदीर्ण करता हुआ भयानक दानव की तरह तट की ओर निकट आ रहा था । मेरी मंज्ञा प्राय. लुप्त थी । जहाज के डेक पर लगते ही नर-नारियों का समुद्र किनारे उतरने लगा। मैं सम्पूर्ण चेष्टा से उनके बीच कुछ खोज सकने भर की संज्ञा संचित कर रही थी। सब कुछ एक रंगीन बिन्दु के समान दीख पड़ता था। नहीं कह सकती, कब तक हम लोग खड़े रहे। हठात् स्वामी जी ने कहा---इस जहाज में तो वह नही है । क्या कारण हुया ! उनके प्रदीप्त नेत्र दूर तक धूमकर मेरे मुख पर पा लगे । बम्बई आने पर यही शब्द मैं ठीक-ठीक सुन सकी । मैं समझी, यह सब मृग-मरीचिका थी। वे नहीं आए, वे नहीं पाएंगे। मैंने अनन्त तक फैनी हुई जल-राशि पर दृष्टि दौड़ाई । हठात् मेरे मन में एक भाव उदय हुा । मैंने कहा-पिताजी, तब मैं कहां जाऊंगी। मेरे ये शब्द मेरे ही कानों में तोर के भीषण गर्जन की तरह प्रतीत हुए स्वामीजी ने मेरे मुख की तरफ देखा। उन्होंने आश्वासन देकर कहा- अवश्य कुछ कारण हुआ है । पत्र या तार शीघ्र मिलेगा । तब भविष्य के काव्य पर विचार करेंगे । अभी घर चलो। मैंने एक पग भी न हिलाया । बहुत तर्क हुप्रा । विजय मेरी हुई । सोते हुए शिशु कुमार को छोटी बहू की गोद में सौप, उसे बिना ही अच्छी तरह देखे, उसे बिना ही चूमे, मैं अनन्त समुद्र के पार, उस अज्ञात प्रदेश में, उस पति को ढूंढ़ लाने चली । मेरा माता होना विकार हुआ। हाय रे ! अधम नारी-हृदय !! - इस कृष्णकाय और साधारम पुरुष ने क्या जादू कर दिया ? ओह मैंने के सा