पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५१

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जीवन्मृत २४१ घोर दुष्कर्म किया ? अव इन रक्तरजित हाथों को कौन प्यार करेगा ? यही व्यक्ति ? और वह कितना भयानक, कितना घृणास्पद है ! क्यों यह पापिष्ठ हमारे बीच में पाया? क्यों इसने हमारे प्रशान्त प्रेम में आग लगाई ? मैं इसे घृणा करती हूं। पति की मृतक आंखें कैसी चमक रही हैं ! वे सब कुछ जानती । उन्होंने अपना सभी प्रेम और विश्वास मुझे दिया, नीलिए कि मैं अपनी वासना के लिए उनका प्राण हरण करू ? परन्तु अव तो मैं इनके साथ रहने के लिए बाध्य हूं, छुटकारा पा नहीं सकती। यह वह विदेशी कृष्णकाय हत्यारा नहीं, मेरा वही पति है । इसमे क्या राजनीतिक महत्त्व है, इसे तो वह गुप्त- विभाग जाने, जिसने इस भाग्यहीन को इतना बड़ा पद दिया है। पर मैं कैसे यह मान लूं ? क्या आंखें फोड़ लू, हृदय को चीर डालू ? सुनती थी कि यह विवाहित है। इसके पुत्र, पत्नी है। आज उसे देख भी लिया। वह इसे ले जाने के लिए यहां आई है, पर वह सब कैसे सम्भव हो सकता है ? अब यदि यह अपना पूर्व नाम भी स्मरण करेगा तो उसकी सजा मौत है । और कैसी भयानक बात है ! मैं उससे मिली, कितनी सीधी-सादी, दुखिया स्त्री है ! वह अपने हठ पर है। किन्तु उसे मालूम नहीं कि प्रदल और समर्थ हाथ उसके विपरीत है। प्राराध का इतना समर्थन कहां किसने देखा होगा? ओफ़! कल मैंने उन्हें देखा। वही थे, किन्तु कितना परिवर्तन हो गया है ! फिर भी मेरी प्रांखें क्या उन्हें भूल सकती थीं ? उन्होंने भी देखा । मैं समझ गई, उनकी हड्डी तक कांप गई है, पर क्यों ? वे दौड़कर क्यों नहीं मेरे पास आए इतना डरे क्यों ? क्या पहचाना नहीं ? ओह, हे ईश्वर, तव मेरे लिए और कहां है ? इतना करके भी मैं वंचित रहो ? प्राशा के कच्चे तार के सहारे वे प्राण इस अधम शरीर को यहां तक ले भाए। पाकर जो पाना था पाया भी, पर कसा मै पाकर भी न पा सकूँगी ? मोह, पति के नाम पर मर-मिटने वालियों से भी मेरा साहन बढ़कर है। मैं आगे बढ़ी। दिन छिप गया था । गहरा कोहरा इस विदेश की नहानगरी में अद्भुत और भयानक मालूम होता था। प्रकाश-स्तम्भों की धुवली रोशनी में मैं उनके पीछे बढी चली गई और साहसपूर्वक उनका हाथ पकड़ लिया । उन्होंने रुककर देखा, भद्र विदेशी भाषा में उन्होंने कहा-~-देवी, श्राप कौन