पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खूनी उन दिनों हुतात्मा श्रीगणेशशंकर विद्यार्थी जेल में थे, तभी प्रताप में यह कहानी छपी थी, पढकर उन्होंने लेखक को एक कार्ड लिखा था । उसमें केवल एक ही वाक्य था -खूनी से प्रताप धन्य हो गया। इन बातों को आज तीस धरल हो रहे होंगे । लेखक तब आज के गुरुगरिमापूर्ण आचार्य न थे, उत्तप्त अंगारों पर नृत्य करने वाले कलाकार थे । गान्धीजी के अहिसातत्व का तब जन्म ही हुआ था--और इस कहानी के लेखक ने गान्धीवाद पर अपनी अप्रतिम रचना 'सत्याग्रह और असहयोग' रवी ही थी, जो उन दिनों गीता की मांति पढी जा रही थी। क्रान्तिकारियों के आए दिन आतंकपूर्ण माहसिक कार्य सुन पडते थे, किसी कलम के धनी का और सरस्वती के वरद पुत्र का यह साइस न था कि उनके आतंकवाद की ओर अंगुली भी उठाए-तभी आचार्य ने शुद्ध अहिंसा की राजनीति का एक प्रभावशाली रेखाचित्र इस कहानी में त्रित किया था। उसका नाम मत पूछिए । आज दस वर्ष से उस नाम को हृदय से और उस सूरत को प्रांखों से दूर करने को पागल हुआ फिर रहा हूं। पर वह नाम और वह सूरत सदा मेरे साथ है । मैं डरता हूं, वह निडर है ; मैं रोता हूं, वह हंसता है , मैं मर जाऊंगा, वह अमर है । मेरी उसकी कभी की जान-पहिचान न थी। दिल्ली में हमारी गुप्त सभा थी। सब दल के आदमी आए थे, वह भी आया था। मेरा उसकी ओर कुछ ध्यान न था । वह मेरे पास ही खड़ा एक कुत्ते के पिल्ले से किलोल कर रहा था । हमारे दल के नायक ने मेरे पास आकर सहज गम्भीर स्वर में धीरे से कहा- इस युवक को अच्छी तरह पहवान लो, इससे तुम्हारा काम पड़ेगा। नायक चले गए, और मैं युवक की ओर झुका, मैंने समझा-~-शायद नायक हम दोनों को कोई एक काम सुपुर्द करेंगे । मैंने उससे हंसकर कहा-कैसा प्यारा जानवर है ! युवक ने कच्चे दूध के समान स्वच्छ अांखें मेरे मुख पर डालकर कहा--काश ! मैं इसका सहोदर भाः २४४