पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२५५

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वूनी २४५ झोता ! मै ठठाकर हंस पड़ा । वह मुस्कराकर रह गया । कुछ बातें हुई । उनी दिन वह मेरा मित्र बन गया ! दिन पर दिन बीतते गए। अछूते प्यार की धाराएं दोनों हृदयों में उमड- कर एक धार हो गई। सरल, अकपट व्यवहार पर दोनों एक-दूसरे पर मुग्ध होते गए। वह मुझे अपने गांव ले गया। किसी तरह न माना, गांव के एक किनारे स्वच्छ अट्टालिका थी। वह गांव के जमींदार का बेटा था, इकलौता बेटा। हृदय और सूरत का एक सा । उसकी मां ने दो दिन में ही मुझे वेटा कहना शुरू कर दिया। अपने होश के दिनों में मैंने वहां सात दिन माता का स्नेह पाया। फिर चला आया। अव तो विना उसके मन न लगता था। दोनों के प्राण दोनो में अटक रहे । एक दिन उन्मत्त प्रेम के आवेश में उसने कहा था-किसी अघट घटना से जो हम दोनों में से एक स्त्री बन जाए तो मैं तो तुमसे ब्याह ही कर लू। नायक से कई बार पूछा-क्यों तुमने मुझे उससे मित्रता करने को कहा था! वह सदा यही कहते-समय पर जानोगे । गुप्त सभा की भयंकर गंभीरता सव लोग नहीं जान सकते ! नायक मूर्तिमान् भयंकर गंभीर थे। उस दिन भोजन के बाद उसका पत्र मिला। वह मेरी पाकेट में अब भी सुरक्षित है। पर किसीको दिखाऊंगा नहीं। उसे देखकर दो सांस सुख से ले लेता हूं, प्रांसू बहाकर हल्का हो जाता हूं। पुराने रोगी को जैसे कोई दवा खुराक बन जाती है, मेरी वेदना को भी यह चिट्ठी खुराक बन गई है। चिट्ठी पढ़ भी न पाया था, नायक ने बुलाया। मैं सामने सरल स्वभाव में खड़ा हो गया । बारहों प्रधान हाजिर थे। सन्नाटा भीषण सत्य की तस्वीर खीच रहा था । मैं एक ही मिनट में गम्भीर और हड़ हो गया। नायक की मर्मभेदिनी दृष्टि मेरे नेत्रों में गड़ गई, जैसे तप्त लोहे के तीर प्रांत में घुस गए हों। मैं पलक मारना भूल गया, मानो नेत्रों में आग लग गई हो। पांच मिनट वीत गए । नायक ने गम्भीर वाणी से कहा, सावधान ! क्या तुम तैयार हो ? मैं सचमुच तैयार था । मैं चौका नहीं। आखिर मैं उसी सभा का परीक्षार्थी सभ्य था । मैंने नियमानुसार सिर झुका दिया। गीता की रक्तवर्ण रेशमी पोथी धीरे से मेज पर रख दी गई। नियमपूर्वक मैंने दोनों हाथों से उठाकर उसे ति